धुन्ध के पार (कहानी-संग्रह)

इस वेबपेज पर संग्रहित सभी सामग्री डॉ० दिनेश पाठक ''शशि'' के अधीन है व सभी सर्वाधिकार सुरक्षित है.


 कहानी-                                                  पहल                  डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’
                                   

                 सब तैयारी हो चुकी है। अपनी और बच्चों की अलग-अलग अटैची तैयार कर अर्चना ने एक कोने में रख दी हैं। वायदानुसार गर्मी की छुटि्टयों में मुम्बई घुमाने जो ले चलना है। कई वर्ष से किसी पर्यटन-स्थल पर जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं। इस बार मुम्बई जाने का कार्यक्रम बनतो सभी खुश हो उठे। अनुज और विवेक को एस्सल वर्ल्ड देखने की उत्सुकता थी तो आस्था को 'फिश-एक्वेरियम' अर्चना की जिज्ञासा एलीफेण्टा और समुद्र के बीच बने कारखाने और कारखाने तक जाती, समुद्र के सीने पर बनी सीमेण्ट की सड़क को देखने की थी। सभी जल्दी से जल्दी मुम्बई पहुँच जाना चाहते हैं। बस इन्तजार है तो अनु के आने का, जो अपनी पढ पूर्ण कर रही है।
            सभी उसकी गाडका इन्तजार कर रहे हैं। अर्चना तो कई बार रेलवे पूछ-ताछ से पूछ भी चुकी है और धीरे-धीरे करके पूरे दो घण्टा विलम्ब से हो गई गाडके लिए रेलवे वालों को कोस भी चुकी है।
            बच्चों की खुशी के आगे, अपने भावों को सीने में ही दफन कर, उसने मुम्बई का आरक्षण करवा दिया है। पर मन कहीं और ही जगह उमड -घुमड  रहा है। यादों के झोंके कभी उसे बहनों के पास ले उड ते हैं जहाँ वह कई-कई साल से नहीं जा पाया है। बार-बार आते उनके पत्रों का गोल-माल उत्तर देकर या कभी बच्चों की पढ,टैस्ट,परीक्षा आदि का हवाला देकर तो कभी किसी की अस्वस्थता का जिक्र करके  उनके पास पाने की अपनी मजबूरी पत्रों में व्यक्त करता रहा है और हर अगले वर्ष बच्चों की छुटि्टयों में आने का आश्वासन भी देता रहा है।
            फिर दूसरा झोंका उसे गाँव ले उड ता है जहाँ उसकी माँ रहती है और रहते हैं भइया-भाभी जो उसके आगमन की प्रतीक्षा में पलक-पाँवडबिछाये रहते हैं और जिनके बच्चे, अनुज,विवेक और अनु से मिलने के लिए मनुहार भरे पत्रों के ढेर लगाते रहते हैं।
            बूढ़ी माँ अब और अधिक बुढगईं हैं। पिछली बार जब वे यहाँ आईं थीं तो चलने-फिरने की शक्ति तक नहीं थी उनमें, कई महीने से अस्वस्थ जो चल रहीं थीं। भइया से जि करके आईं थीं-'' बाय फुरसति नायं मिलै नौकरी में, तौ मैंई बाकूँ देखि आऊँ नैक। बालकन कूँ देखे बगैर भौतु समै है गयौ है। पतौ नॉंय कब मट्टी समेटि लेइ भगवान। भइया मोइ लै चलि........''और भइया उन्हें यहाँ पहुँचा गए थे। गाल और चेहरे पर पड  गईं अनवरत झुर्रियाँ और कृशकाय शरीर, उनकी हालत देख आँखों की कोर गीली हो उठी थीं। डॉक्टर को दिखा कर दवा-गोली शुरू की तो थोडदिन में चलने-फिरने लायक हुईं।आँँखों से भी कम दिखने लगा है अब। नेत्र-विशेषज्ञ को दिखाकर चश्मा टैस्ट कराया और एक बढि या सी छड  भी उन्हें दिलाई। जिसे पकड  कर चलने में उन्हें सुविधा रहे। पर इस सब में धीरे-धीरे करके काफी पैसे खर्च हो गए थे। पत्नी ने बजट की ओर उँगली दिखानी शुरू कर दी थी। महीने की दस तारीख आते-आते सारा वेतन समाप्ति की ओर था। दोनों बच्चों की फीस,वैन का किराया और अनु को मनीआर्डर भेजना अभी वाकी था। पर माँ का खयाल बार-बार दोलन करने लगता है। चश्मा और छडखरीदवाने के बाद गाँव छोड  आया था। बहुत खुश हुईं थीं वे, चश्मा और छडपाकर। वह गर्व से लौट आया था गाँव से। जैसे सपूत ने ये दो चीजें दिला कर माँ का सारा ऋण चुकता कर दिया हो।
            उसके बाद से कई वर्ष हो गए। वह मुड कर नहीं देख पाया कि अब कैसी हैं माँ? ठीक से चल-फिर भी पातीं हैं या नहीं। 
            माँ की ओर से ध्यान हटा तो सुधियों का एक और झकोरा आया। अब की बार वह उसे बडभाई और भाभी के पास ले पहुँचा। उन्होंने ही उसे पढा -लिखा कर इस स्थिति तक पहुँचाया था कि आज लाखों बेरोजगारों की भीड  में, वह अपने पैरों पर तो खडहै। बडभाभी ने उसे हमेशा ही माँ की भँाति स्नेह दिया। आज वर्षों बाद भी वह उनकी गोद में लेट जाता है और वे उसी तरह से उसके सिर में अपन सीधे हाथ की उँगलियाँ फिराने लगती हैं जैसे तब फिराती थीं जब वह छोटा था।
            उन्हीं भाई-भाभी और उनके बच्चों के लिए क्या कर पा रहा है वह? हमेशा ही जेब में तंगी बनी रहती है। कभी-कभी उसे आश्चर्य होता है कि पहले लोग कैसे गुजारा करते थे ? आज जब कि वेतन हजारों में पहुँच गया है, उसका गुजारा तक नहीं हो पाता। बच्चों की छोटी-छोटी खुशियाँ भी वह नहीं बटोर पाता। आखिर कहाँ कमी है उसके खर्च करने में। पान,बीड़ी,सिगरेट और शराब जैसी चीजों का कभी स्वाद भी नहीं चखा उसने। अन्य कोई फिजूल खर्च भी नहीं करता। कई-कई वर्ष तक सिनेमा घर में एक भी मूवी नहीं दिखा पाता बच्चों को। जुरासिक पार्क के लिए बच्चों ने बार-बार मनुहार की तो दिखा लाया था। उसको भी पाँच वर्ष होने जा रहे हैं।
            फिर..........कहाँ खर्च होता है? बच्चों के कपड े लत्तों को देखा जाए तो वर्ष में बमुश्किल एक-एक जोड ी  कपड े बनवा पाता है। और पत्नी को तो कई-कई वर्ष हो जाते हैं एक अच्छी साड ी दिलाए बगैर।
            खान-पान में भी वही सब साधारण सा । फिर ? ..........सोच-सोच कर वह खुद हैरान होने लगता है। लेकिन जब कागज पर उतारने लगता है तो एक-एक पाई का हिसाब मिल जाता है। कहीं भी एक पैसा फालतू खर्च नहीं।
            फिर क्या उसकी नौकरी में ही कहीं दोष है या फिर उसके नौकरी करने में।
            नौकरी में दोष कैसे दिया जाए जब कि उसका एक साथी जो उसी के साथ पढ ा था, और संयोगवश उसी के साथ इसी नौकरी में आया, आज काफी सम्पत्ति का मालिक है। कई शहरों में प्लाट्स लेकर डाले हुए हैं । वह जब भी मिलता है खूब ठसकेदार बातें करता है। और बातों ही बातों में इतना धन कमाने का राज भी, बड े गर्व से बताने लगता है कि किस-किस ठेकेदार की जेब को  किस-किस तरह से खाली किया करता है वह।
             उसकी इस माली हालत को देखकर पैसा कमाने के कुछ नुस्खे वह उसे भी समझाने लगता है। पर ये नुस्ख ेउसके पल्ले ही नहीं पड़ते। हार-थक कर वह अपने साथी के हाथ जोड  देता है- ''मित्र, मुझ से नहीं होगा यह सब। मैं किसी की जेब से पैसा नहीं निकाल सकता। चाहे गुजारा हो या न हो। मैं तो अपनी इस गरीबी में ही खुश हूँ।''
            ''ठीक है फिर बने रहो हरिश्चंद्र ऐसे ही।'' -सुनकर वह खीझ उठता। कभी-कभी अकेले में जब सोचता तो उसके अनेक मित्रों के कुछ चेहरे सामने घूमने लगते, जिनकी बड े बड े शहरों में कोठियाँ खड ीं हैं यहाँ तक कि कई तो अपनी गाड ी तक मेन्टेन किये हैं। नहीं.......... सूखी तनखवाह में यह सब नहीं हो सकता। हरगिज नहीं। जरूर ही ये सब भी...... ठेकेदारों की जेबों को....... या फिर............ देश को खोखला करके. नहीं, वह नहीं कर पायेगा यह सब, कभी नहीं।
            ''अजी सुनते हो, कहांॅ भटक गये। कितनी देर से आवाज लगा रहीं हूँ।'' पत्नी ने पुकारा तो सुधियों के झरोखों से वह वापस आ गया। देखा सामने अनु खड ी है।
            ''अरे बेटी, आ गई तू ?''
            ''हाँ पापा, मम्मी कई आवाज लगा चुकी हैं आपको, पर आप तो न जाने कहाँ खोये हुए थे।''
            ''नहीं बेटी ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल सब तेरा ही इन्तजार कर रहे थे। मुम्बई जाने का कार्यक्रम बना लिया है न इन्होंने।''
            ''मुम्बई किस लिये पापा?''
            ''छुट्टियों में घूमने के लिये, ओर किसलिए दीदी।'' -आस्था ने इठलाते हुए कहा तो अनुज भी बोल पड ा- ''वहाँ हम एस्सल वर्ल्ड देखेंगे। ऐलीफेन्टा देखेंगे और बताऊँ दीदी, गेटवे ऑफ इन्डिया, म्युजियम और फिश एक्वेरियम भी तो है वहाँ।''
            ''मगर मैं मुम्बई नहीं जाना चाहती पापा।'' -गले में अपनी दोनों बाहें डालते हुए उसने मनुहार की तो सभी चौंक उठे।
            ''क्यों, क्यों नहीं जाओगी दीदी?'' -विवेक बोल उठा।
            ''हाँ दीदी, क्यों नहीं जाओगी? बताओ। हम तो आपका कब से इन्तजार कर रहे हैं कि आप आयें तो इस बार मुम्बई घूम कर आया जाये। कई वर्ष से कहीं जा भी तो नहीं पाये।'' नहीं पापा कुछ भी हो। मैं तो इस बार गाँव जाऊँगी, दादी जी के पास। बहुत मन करता हैं मेरा दादीजी की गोद में लेटने को, आम के पेड़ तले चारपाई बिछा कर लेटने को और फिर वहाँ ताऊजी-ताईजी भी तो बहुत प्यार करते हैं न। इतना ही नहीं गाँव से छोटे बहन-भाई पत्र लिख-लिखकर हमें आमंत्रित करते रहते हैं न?''
            उसे लगा कि जो बात वह अनुज, विवेक और आस्था का मन देखकर कह नहीं पाया था; अनु ने कह कर उसके भावों का समर्थन कर दिया है। उसकी आत्मा प्रफुल्लित हो उठी। बच्चों का मन जानने की इच्छा से  वह अनु की ओर मुखातिब हुआ -''पर बेटी, मुम्बई का तो रिजर्वेशन करा दिया है।''
            ''हाँ दीदी, हमने सब तैयारी भी कर ली है, चलो न।'' विवेक, अनुज और आस्था तीनों ही एक साथ बोल पड े। अनु ने उनके गाल थपथपाते हुए प्यार से देखा -''मेरे प्यारे बहन-भाइयों, तैयारी तो फिर भी हो जायेगी। मगर.......... दादीजी वृद्ध हैं। कहीं उनसे फिर मुलाकात न हुई तो........ ऐसा करो तुम सब लोग भी गाँव चलो इस बार। तैयारी तो है ही।'' -कहते हुए अनु मुम्बई का टिकिट रद्द कराने के लिए स्टेशन की ओर रवाना हो गई।
            देख कर सभी अवाक् खड े रह गये। और वह......... अनु की इस पहल पर प्रसन्नता से उसका मन बल्लियों उछलने लगा।




                     कहानी-          मुझसे भी पहले            डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’
                            


'पापा,आपने कोई जवाब नहीं दिया?मुझे आज्ञा दीजिए पापा।'-रोहित की बात सुनकर उसे एक झटका सा लगा। उसने हाथ में पकड़ी पुस्तक को मेज पर रखा और रोहित के चेहरे की ओर एकटक देखने लगाा।
            उसे लगा जैसे उसके मस्तिष्क की शिराएं सुन्न होती जा रही हैं और हाथ-पांव निर्जीव-से।
            रोहित के चेहरे में पंकज का चेहरा गड्-मड् होने लगा। दस वर्ष पहले ठीक इसी तरह पंकज उसके सामने खडहोकर पूछ रहा था-'पापा मुझे आज्ञा दीजिए और तब उसने खुशी-खुशी पंकज को विदा किया था-'जाओ बेटा,ईश्वर तुम्हें राह दिखाए।'
            माता-पिता के चरण स्पर्श कर पंकज चला गया था।कमीशन मिल जाने के कारण वह सेकिण्ड लेफ्टिनेंट हो गया था।
            'पहले छह माह के प्रशिक्षण में सद्री को एक-सा ही सीखना पड ता है। आज हमने क्रोंलिंग की प्रेक्टिस की।'-पंकज के पत्र समय-समय पर प्रशिक्षण की बारीकियों से अवगत कराते तो पत्र पढ कर कद्री-कद्री तो उसका दिल कॉंप उठता। पूरे लाड -प्यार में पला पंकज ये सब कैसे कर पा रहा होगा। कहीं बीच में ही छोड कर द्राग आया तो मुसीबत खडहो जायेगी। बताते हैं फौज का अनुशासन बहुत सखत होता है। बीच में द्राग आने वाले द्रगोडके परिवार वालों को द्री बहुत परेशानी का सामना करना पड ता है,और तब उसे अपने उस निर्णय पर अफसोस होने लगता जब उसने पंकज को 'हाँ' कह दिया था। पंकज तो नादान था,अपरिपक्व, पर उसे तो खूब सोच-समझ कर निर्णय लेना चाहिए था। क्या हो गया था उसकी बुद्धि को उस समय और वह हाथ जोड कर प्रार्थना करने लगता-'हे प्रद्रो,पंकज का प्रशिक्षण ठीक प्रकार से पूरा हो जाय।'दूसरे ही क्षण उसे लगता जैसे कोई शक्ति उसे ढॉंढस बॅंधा रही हो-'चिंता करो वत्स,तुम्हारा पंकज सफलता प्राप्त करेगाा।'और वह हाथ जोडनतमस्तक हो उठता।
            पंकज ने तो छह माह का कठिन प्रशिक्षण पूर्ण कर लिया था पर रोहित द्री कर पायेगा क्या?एक बार पैर में जरा सा कांटा चुद्र गया था तो सारा घर सिर पर उठा लिया था रोहित ने। फिर क्रीपिंग जैसी कठिन ट्रेनिंग जिसमें हाथ की कुहनियॉं बुरी तरह जखमी हो जाती है,जगह-जगह से खून रिसने लगता है। रोहित कर पायेगा?उसने रोहित के मासूम चेहरे    को गौर से देखा जो प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा था। मूछों की जगह अद्री थोड ी-थोड ी रेख ही नजर आ रही है,सुकोमल चेहरे पर। क्या ये द्री अपने द्राई की तरह ही.......नहीं....नहीं.....,अब वह किसी को फौज में नहीं जाने देगा।अद्री तो पंकज की याद ज्यौं की त्यौं ताजा है। पंकज की मॉं आज द्री उन दिनों की याद करके कॉंप उठती है। रातों को सोते से जाग-जाग कर वह दरवाजे पर पंकज की राह देखने लगती है-''आयेगा,जरूर आयेगा मेरा बेटा। दुश्मनों को देश से बाहर खदेड  कर जरूर आयेगा।
            दो माह की छुट्टी लेकर आये हुए पंकज को अद्री कुछ ही दिन बीते थे कि पड ौसी देश ने द्रारत पर आक्रमण कर दिया था। छुटि्टयाँ बिताने अपने-अपने घर गए सैनिकों को टेलीग्राम द्रेजकर वापस बुलाया जाने लगा था। पंकज द्री वापस जाने लगा। युद्ध-द्रूमि में जाते हुए पुत्र के सिर पर हाथ रख,आशीर्वाद देते हुए माँ ने कहा था-
            ''बेटे, इस समय राष्ट्ररक्षा ही सर्वोपरि कर्तव्य है, प्रत्येक द्रारतीय का। जाओ और अपने कर्तव्य का दृढ ता से पालन करो। याद रहे द्रारतीय परंपरा सीने पर गोली खाने की है,पीठ पर नहीं।''
            जाने कहाँ से इतना साहस आ गया था उस समय पंकज की माँ में। वाणी में जैसे साक्षात दुर्गा माँ बोल रही थी उसकी। पर वह पिता होकर द्री एक शब्द नहीं बोल पाया था। बस पंकज को जाते हुए देखता रहा था चुपचाप। जाते-जाते पंकज ने चरण-धूलि माथे से लगाते हुए कहा था-''माँ, तेरा बेटा तेरे दूध की लाज अवश्य ही  रखेगा।''
            युद्ध की विद्रीषिका द्रीषण रूप से फैलती जा रहीं थी। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से रोंगटे खड े कर देने वाले समाचार प्रसारित हो रहे थे।सद्री दिन द्रर रेडियो से कान लगाए रहते।
            पंकज द्री एक मोर्चे पर अपनी टुकड ी लेकर गया था। दुश्मन के टैंकों को ध्वस्त करते आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था कि अचानक एक साथ कईं गोलियाँ सनसनाते हुए आई और पंकज का सीना छलनी कर गईं।
            शाम के बुलेटिन में उसने सुना-लैफ्टिनेंट पंकज ने जिस बहादुरी से दुश्मन के कई टैंकों को ध्वस्त कर डाला वह आश्चर्यजनक है। वे आगे ही आगे बढ ते जा रहे थे कि अचानक दुश्मन के एक टैंक को ध्वस्त करते समय वे शहीद हो गए।
            इससे आगे वह और कुछ न सुन सका था। रेडियों बन्द करते-करते द्री वह बेहोश होकर गिर पड ा था।
            दो पुत्रों में से एक को खो चुका था वह। पंकज की माँ आज द्री आस लगाए बैठी है कि उसका पंकज जरूर आयेगा । पर यथार्थ से मुॅंह कब तक मोड ा जा सकता है।
            पंकज की तरह रोहित द्री फौज में जाने की जिद् न करने लगे इसलिये उसने रोहित को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया था। पढ ाई पूरी करते ही घर पर ही क्लीनिक खुलवा देगा। दो में से एक रह गया पुत्र कम से कम आँखो के सामने तो रहेगा। किसी द्री नौकरी के लिये बाहर जाने की जरूरत नहीं। बस, माँ-बाप की नजरों के सामने अपने क्लीनिक पर बैठेगा। वृद्ध माँ-बाप को इससे ज्यादा खुशी क्या होगी कि उसके बेटा-बहू उनकी नजरों के सामने रहें और उनके नन्हें-नन्हें बच्चे अपनी तोतली बोली से अपने दादा-दादी का मन बहलायें।
            कुश की नोंक सा प्रखर बुद्धि वाला रोहित शीघ्र ही मेडिकल कॉलेज से योग्यता सूची में अपना नाम दर्ज कराते हुए घर आ गया तो उसने घर के ठीक सामने उसका क्लीनिक खुलवा दिया। रोहित के विवाह हेतु रिश्ते लेकर आने वालों की द्रीड  लगने लगी। आखिर एक दिन मुहूर्त आदि देखकर चन्द्रमोहन जी की बेटी डॉ०ऋचा से रोहित का विवाह सम्पन्न हो गया।
            विवाह के कुछ दिन बाद ही ऋचा-रोहित ने मिलकर अपना क्लीनिक सॅंद्राल लिया तो उसने बहुत सुख महसूस किया। डेढ  वर्ष बाद ही ऋचा ने पुत्र को जन्म दिया तो रोहित की माँ द्री बच्चे की किलकारियों में विगत के दर्दों को द्रुलान लगी थी।
            पर आज अचानक ये द्रूचाल कहाँ से आ गया उनके घर में। रोहित जो खूब अच्छी तरह अपना क्लीनिक चला रहा था ये क्या पूछने लगा उससे। पंकज की तरह ही फौज में जाने की जिद्द,इसके दिमाग में कैसे पैदा हुई। किसने बहका दिया उनके घर के चिराग को?
            सारे प्रश्न उसके अंतर्मन में द्वंद्व मचाने लगे। नहीं, वह हरगिज नहीं द्रेजेगाा रोहित को। फौज में जाने की आज्ञा वह हरगिज नहीं दे सकता।
            ''कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे पापा कि मुझको किसी ने बहका दिया है, बिल्कुल नहीं मैंने तो उसी दिन फौज में जाने का निर्णय ले लिया था जिस दिन बड़े द्रैया शहीद हुए थे। और तद्री से में निरंतर तैयारी कर रहा था। परीक्षा द्री दे आया था आपको बताए बगैर।आज उसी परीक्षा-परिणाम के फलस्वरूप तो ये बुलावा-पत्र आया है पापा।''
            उसने अपने आप को सॅंद्राला और मेज पर रख दी गई पुस्तक को उठाकर उसके पृष्ठों में कुछ खोजने लगा।
            रोहित ने पिता की ओर देखा तो घबरा गया-''पापा, आपका चेहरा एकदम से पीला क्यों पड  गया। मैं फौज में जाने की आज्ञा मॉंग रहा हूँ इसलिये क्या?''
            'हाँ बेटे तेरे पापा ने अपने एक बेटे को........।'-आवाज जैसे गले में ही अटक गई। द्रर्राए गले से वह इतना ही बोल सका।
            ''कम ऑन पापा, आपके बड े बेटे ने देश की रक्षा हेतु कुर्बानी देकर शहींदो में अपना नाम दर्ज कराया था,कायरों में नहीं। सारा देश उनकी कुर्बानी को याद करता है। आपका तो एक बेटा शहीद हुआ पर सोचो द्रारत माँ के हजारों बेटे कुर्बान हो गए थे।
            आज फिर दुश्मन ने गद्दारी की है। दुश्मन को सबक सिखाने के लिये हम जैसे नौजवानों को पुकार रही है द्रारत माता। आप तो बहुत द्राग्यशाली हैं पापा,ऐसे समय सीमा पर द्रेजने के लिये जिसके पास दूसरा पुत्र तो हैं,सोचो जिनके एक ही पुत्र था वो किसे द्रेजेंगे?''
            उसे लगा पंकज उसके सामने खड ा है और कह रहा है,पापा सीमा पर तैनात सैनिकों की बदौलत ही तो देश चैन की नींद सोता है। यदि सद्री आपकी तरह अपने पुत्रों को सीमा पर जाने से मना कर दें तो.....और फिर ऐसे समय जब द्रारत माता बार-बार पुकार रही हों.....जो ऐसे समय राष्ट्र माता की पुकार नहीं सुनता उसे देश में रहने का द्री कोई अधिकार नहीं है पापा....।
            उसने आँखे मिचमिचाकर देखा पंकज या रोहित। रोहित या पंकज। कौन बोल रहा था अद्री। शायद रोहित के शरीर में पंकज की आत्मा। ठीक ही कह रहा है, रोहित। इस बार गद्दार दुश्मन को सबक सिखाना ही होगा।
            उसके चेहरे पर पुनः चमक आ गई- 'बेटे तुम ठीक कह रहे हो। मैं तो द्रूल ही गया था कि मुझसे द्री पहले तुम देश के लाल हो,द्रारत माँ के लाल। जाओ और दुश्मन को सीमा से बाहर खदेड़ दो।
            उसे लगा निर्णय सुन, दीवार पर टंगा शहीद पंकज का फोटो द्री मुस्कराने लगा है।



                            कहानी-               विगत की लहरों में                     डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’
            
गोमती एक्सप्रेस के आने की उद्घोषणा सुनते ही उसने कुर्सी की बैक पर टॅंगे अपने कोट को उतारा और पहनते हुए बड़ी मेज के पास गई। बडी मेज पर टिकट पंच करने वाली प्लायर पडी थी जिसे दाहिने हाथ से उठाकर वह प्लेटफार्म नम्बर एक पर गई और फिर धीरे-धीरे चलते हुए निकासद्वार पर आकर खडी हो गई।
            गोमती एक्सप्रेस के रुकते ही यात्रियों का रेला गाडी से उतर कर प्लेटफार्म पर भीड  का रूप धारण करने लगा। निकास द्वार से निकलने वाले प्रत्येक यात्री की ओर जैसे ही वह हाथ बढाती, यात्री हाथ में पकडे सामान को नीचे रखता, जेब में हाथ डालकर टिकट निकालता और उसके हाथ में टिकट थमाकर निकास द्वार से बाहर निकल जाता। ऐसा करने पर निकास द्वार के आगे भीड  का बढ  जाना स्वाभाविक ही था।
            इससे पहले कि वह हाथ आगे बढाकर टिकट शब्द कहे,अगले यात्री ने हाथ में पकडा सामान प्लेटफार्म पर रखा और कोट की जेब से टिकट निकाल कर आगे बढा दिया। यात्री के हाथ से टिकट लेते-लेते अचानक उसकी नजर यात्री के चेहरे पर पहुॅंच गई और उसी के साथ अन्य यात्रियों से टिकट लेना भूल, उस यात्री के चेहरे पर अपलक नजरें गडाए-गडाए ही वह अपने अतीत में डूबती चली गई।
            आज से ठीक बीस बर्ष पहले शादी हुई थी उसकी। इंजीनियर पति मिला था उसे। देखने में भी खूबसूरत और स्मार्ट। घर छोड कर पहली बार जब वह ससुराल आई तो पति का ही नहीं सास-ससुर का भी खूब प्यार मिला उसे और वह अपने मायके को भूल कर , ससुराल में ही खूब रमने लगी थी। संयोगवश क्षतिपूर्ति के आधार पर पिता की जगह मिली नौकरी में उसकी पोस्टिंग भी अपनी ससुराल के नजदीकी स्टेशन पर ही हो गई थी। सुबह जागकर जब वह दफ्तर के लिए तैयार हो रही होती तो उस बीच उसकी सास उसका टिफिन तैयार कर देती। जब वह ड्यूटी पर जाने लगती तो  उसके हाथ में टिफिन थमाते हुए सास, बहू की ओर देखकर ऐसे मुस्कराती जैसे बहू को नहीं अपनी सगी बेटी को स्कूल जाने के लिए टिफिन थमा रही हो। वह भी एक मुस्कान बिखेरते हुए सास के हाथ से टिफिन ले लेती और सास के पैर छूकर ड्यूटी के लिए रवाना हो जाती।
यही क्रम चल रहा था कि दो महीने बाद ही उसकी मॉं, उसके दफ्तर में गई। रत्ना को देखते ही मॉं का क्र्रोध भड़क उठा-‘‘क्यों, दो महीना हो गये, एक बार भी घर आने की जरूरत नहीं पडी तुझे। मॉं और छोटी बहन कैसी हैं , किस हालत में हैं और कैसे गुजारा कर रही हैं, इसका भी कुछ पता किया या शादी होते ही सब कुछ भूल गई?’’
            मॉं को दफ्तर में आकर इस तरह बिगडते देख कर रत्ना एकदम से सहम गई।अन्य सहकर्मियों के बीच अचानक ही आकर मॉं इस तरह उसकी बेइज्जती कर डालेगी इस बात का तो उसे अनुमान तक था। उसने मॉं का हाथ पकडा और एक कोंने की ओर ले जाकर फुसफुसाई-‘‘मॉं, तुम ये सब क्या कर रही हो? मेरे इतने सहकर्मियों के बीच मेरी इज्जत उतार कर रखे दे रही हो। भला इस तरह मैं इन लोगों के बीच किस तरह नौकरी कर पाऊॅंगी?’’
            सुनकर मॉं और अधिक भडक उठी,-
‘‘अच्छा-अच्छा, सुन लिया। अब ज्यादा उपदेश मत दे और निकाल वेतन के रुपये। अगर मुझे ऐसा पता होता तो या तो तेरी नौकरी ही नहीं लगवाती या फिर तेरी शादी ही नहीं करती। समझी? तू तो बिल्कुल ही भुला बैठी हम मॉं-बेटी को।’’
           ‘‘ नहीं मॉं ,ऐसा मत कहो।’’-वह रुॅंआसी हो उठी।-अगर मेरा कोई भाई होता तो मुझे आना ही क्यों पडता इस नौकरी में। मैं तो मजबूरी में........’’
            ‘‘हॉं-हॉं, मजबूरी में तो कर ही रही है नौकरी। बहुत घमण्ड हो गया है तुझे अपनी ससुराल पर। अब मजबूरी में तू हमारे लिए नौकरी कर रही है।’’-मॉं के बचन कठोर से कठोरतम होते जा रहे थे। ऐसी स्थिति में वह अपने को बडी ही निरीह हालत में पा रही थी। उसने सजल नेत्रों से मॉं की ओर देखा।-‘‘अच्छा, मॉं अब आप निश्चिंत होकर घर जाओ। मैं हर माह नियमित रूप से वेतन आपके पास  पहुॅंचाती रहूॅंगी।’’
            मॉं को जैसे-तैसे विदाकर, शाम को वह जब थकी-हारी सी, उदासमन,घर पहॅुंची तो उसके उदास चेहरे को देखकर सास ने प्यार से सिर पर हाथ फिराते हुए पूछ ही लिया-
            ‘‘क्या बात है बहू, आज बड़ी उदास-उदास सी लग रही हो। किसी से झगडा तो नहीं हो गया दफ्तर में?’’
            सास का स्नेह पाकर वह उनकी गोद में सिर रखकर रो पडी-‘‘मम्मी जी, मैं अब ये नौकरी नहीं करना चाहती। पर क्या करूॅं, मेरी मॉं और छोटी बहन के गुजारे का और कोई साधन भी तो नहीं ’’ फिर उसने आज की सारी बातें अपनी सास को बता दीं।
            सारी बातें सुनकर सास ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए मीठी झिडकी दी थी-‘अरी पगली, इसमें घबराने की क्या बात है,वेतन मिलते ही निशेष तेरे साथ जाकर दिलवा आया करेगा। इस तरह तू अपनी मॉं और बहन से मिल भी आया करेगी और उन्हें खर्चे के लिए पैसा भी मिल जाया करेगा।
            सुनकर प्रसन्न हो उठी थी वह। कितनी अच्छी ससुराल है उसकी और कितनी अच्छी हैं उसकी सासजी। वह सोचकर मन ही मन प्रमुदित हो रही थी किन्तु उसकी खुशियों ने लम्बी उम्र नहीं पाई थी तभी तो ........अगले महीने जब वह अपने पति के साथ मायके गई तो मॉं उसके पति से झगड पडी थी-‘‘सुनो लल्ला, मेरी छोरी यहॉं घर पर रह कर ही नौकरी करेगी, तुम्हारे घर से नहीं। और मैं तो चाहती हॅूं कि तुम भी अपनी नौकरी छोड -छाड  कर यहीं जाओ। घर-जमाई बनकर मौज से रहो।’’
            मॉं की बातों से निशेष को गुस्सा गया था। उसी दौरान जाने किस बात पर वह भी मॉं की ही हॉं में हॉं मिला बैठी जिसने निशेष के गुस्से को और भडका दिया। पर जल्दी ही उसने निशेष से मॉफी मांग ली थी। सच तो यह था कि वह अपने पति और सास-ससुर किसी का भी दिल नहीं दुःखाना चाहती थी। उनके प्यार का प्रतिदान उन्हें धोखा देकर नहीं देना चाहती थी। पर उसका दुर्भाग्य था कि छाया की तरह उसके पीछे पडा था। उसकी सगी मॉं ही उसके जीवन को नरक बनाने की ठान बैठी थी। रत्ना अपनी ससुराल की जितनी भी तारीफ करती उसकी माँ उतनी ही उल्टा उसे भड़काती। उसकी ससुराल वालों के हर अच्छे व्यवहार में माँ को चाल नजर आती।
‘‘माँ, वे लोग बहुत ही अच्छे हैं।’’-जब भी रत्ना कहती तो माँ का क्रोध आग में गंधक-पोटास सरीखा भड़क उठता-‘‘अरे ये ही तो चाल है उनकी, तुझे अपने प्यार में फांसकर मुझसे अलग कर देना चाहते हैं वे। और तू निरी मूर्ख है जो इतना भी नहीं समझती। अरे मैंने तुझे नौकरी इसलिए दिलवाई है क्या ? तू तो बहुत ही स्वार्थी निकली।’’ माँ के कटु बचन सुनकर रत्ना रो पड़ती।
‘‘रोकर मत डरा मुझको। कान खोलकर सुनले- या तो अपने खसम से कह कि यहाँ आकर रहे और नही ंतो उसे छोड़कर चली यहाँ। देख कैसा भागा आता है तेरे पास।’’
बस करो माँ,बेषर्मी की हद करती हो तुम भी।’-उसके चीखते ही चट्टाक की आवाज के साथ एक झापड़ रसीद कर दिया था माँ ने। थप्पड़ के लगते ही वह बेहोष हो गई थी। होष आने पर सूनी-सूनी नजरों से उसने अपनी माँ की ओर देखा और मौन समझौता कर लिया। ठीक है माँ, मैं अब केवल तुम्हारे लिए ही जिऊंगी, नहीं जाती ससुराल। पर कैसी माँ हो तुम भी कि अपनी ही बेटी की खुषी में खुष होने की बजाय उसके सुख से ईष्र्या कर उठी हो। अपने जीवन के दुःखों को ,अभावों को तुम मुझपर थोप देना चाहती हो। तुम्हें तो अपनी बेटी के सुखो को देखकर खुष होना चाहिए था।
छह महीने बीते,फिर एक बर्ष बीता और दो वर्ष भी बीत गये पर निषेष घर जमाई बनने के लिए उसके पास नहीं आया। हाँ, पर पत्र कई आये निषेष के जिनमें हर बार उसने अपने घर वापस लौट आने के लिए आग्रह किया था उससे। पर अपनी माँ की जिद के आगे वह तुलसीदास द्वारा त्यागी रत्नावली सरीखी पीड़ा झेलती रही,मौन।
छो वर्ष तक इन्तजार करने के बाद निषेष ने तलाक् के कागज भिजवा दिये थे,-‘‘ मैं तुम्हारी माँ की इच्छानुसार घर-जमाई बनकर रह नहीं पाऊंगा और तुम अपनी माँ की इच्छा के विरुद्ध जा पाने में असमर्थ हो, फिर क्यों एक-दूसरे को बन्धन-मुक्त कर दें हम?
            पढ़कर रत्ना की आत्मा कराह उठी थी। पर दूसरे ही पल वह दृढ  हो गई। सच ही तो लिखा है निशेष ने। आखिर वो क्यो पिए गरल उसके साथ। उसे मुझसे मुक्त हो ही जाना चाहिए।
            तलाक के कुछ महीने बाद ही निशेष ने दूसरी शादी कर ली थी और अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर शीघ्र ही मैनेजर भी बन गया था। पर वह......तिल-तिल कर अपने जीवन को गलाती रही। एकाकीपन जब अधिक हावी होता तो रात के निबिड  अंधकार में अपने अज्ञात भविष्य के बारे में सोच-सोच कर खूब रोती।
            कुछ ही वर्ष में छोटी बहन की शादी भी कर दी उसने। अच्छी ससुराल पाकर छोटी बहन ने लौट कर भी नहीं देखा और अपने जीवन में व्यस्त हो गई। माँ भी अपनी जीवन यात्रा पूरी कर उसे अकेला छोड गई। सूनी-सूनी दीवारों के बीच भटकने के लिये, अकेला। वह रात-रात भर कमरे में  इधर से उधर टहलते-टहलते काट देती। आत्मा का रूदन गंगा-जमुना बन आँखों से बह निकलता। पर अब वह कर ही क्या सकती थी। फूट-फूट कर रोते-रोते उसे अपने निर्णय पर पछतावा होता। क्यों आई वह माँ के कहने में क्यों नहीं दो-टूक जवाब दे दिया था उसने कि उसका अपना घर, अब उसकी ससुराल है। वह वहीं रहेगी, अपने पति के साथ।
            रत्नावली को तो तुलसीदास ने त्यागा था पर उसने तो स्वयं तुलसीदास को त्याग दिया। फिर किस बात की पीडा? सोच कर वह अपने-आप को छलती रहीं इतने वर्ष तक। क्यों छला उसने स्वयं को,क्यों भोगती रही पीडा। क्यों?अतीत के दंश से छुटकारा पाने के लिये,माँ के गुजरते ही उसने हजारों किलोमीटर दूर इस स्टेशन पर अपना ट्रांसफर करा लिया था ताकि विगत का एक रेशा भी उसके वर्तमान पर छाए। पर आज ...... निशेष को अपने परिवार सहित देख कर वह अपने को रोक सकी। विगत की लहरों में डूबती-उतराती वह जब वर्तमान के किनारें पर लगी तब तक निशेष अपने परिवार के साथ निकास द्वार से बाहर जा चुका था और अन्य एक यात्री अपनी जेब से टिकट निकाल रहा था।

                   
                   कहानी-                   अंधेरे के बाद                      डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

पाश्चात्त्य अंक-शास्त्री कीरो की गणना में संयुक्त अंक बारह के फलादेश का स्मरण होते ही ऋचा की कमर को टटोलती उसकी उँगलियाँ स्वतः ही रूक गई।

            अंक बारह यानी ऋचा का नामांक, ऋचा यानी उसकी पत्नी। उसकी, अपनी स्वयं पसंद की गई पत्नी। क्या हुआ कि ऋचा इससे पहले द्री विवाहिता थी कद्री। पर उसने तो ऋचा को उसके संपूर्ण द्रूतकाल सहित स्वीकारा था। सब कुछ जानते-बूझते। 'जैसी है, जो द्री ह'ै की शर्त्त के साथ।
            शायद गलत कह गया कुछ। प्यार में शर्त्त तो होती हीं नहीं कोई। जहाँ शर्त्त होती है उसे प्यार नहीं समझौता कहा जाता है और उसने कोई समझौता नहीं किया था बल्कि स्वतः ही सब कुछ होता चला गया था।
            ''सुनिए''। एक मधुर स्त्री-स्वर सुन, उसने इधर-  उधर देखा। कोई नहीं था फिर उसने पीछे मुड़कर देखा।शायद आवाज उसे ही दी गई हो यह सोचकर उसने स्वागत कक्ष में लकड ी के सुन्दर गोलाकार कक्ष में बैठी इकहरे बदन की खूबसूरत सी परिचारिका की ओर देखा। इससे पूर्व कि वह कुछ पूछे, युवती ही उसकी जानिब मुखातिब हुई-
            ''जी, मैं आपको ही..........शायद आप ही रूचिर जी है?''
            ''बहुत खूब। ज्योतिष द्री जानती हैं आप तो।''-जाने कैसे अनायास ही उसके मुँह से निकल गया। सुनकर वह लजा गई-
            ''जी नहीं। बात ये है कि.......मुझे इस जगह कार्यरत तीन वर्ष हो गये हैं। अतः यहाँ के हर व्यक्ति को पहचानती हूँ। आपकी चूंकि नई अपाइंटमेंट है.........ये पत्र शायद आपका ही है।''-
            उसने मूविंग चेयर को थोड ा पीछे खिसकाया और गोलाकार कक्ष में बनी दराज को खोलकर उसमें से एक पत्र निकाल कर मेरी ओर बढ ा दिया-
            ''पोस्टमैन सारी डाक यहाँ,स्वागत कक्ष में ही दे जाता है।''माथे पर सरक आई बालों की लट को तर्जनी से ऊपर करते हुए उसने मेरे चेहरे की तरफ देखा।
            ''धन्यवाद। पत्र मेरा ही है।''-पता पढ़ते हुए मैंने कृतज्ञता व्यक्त की और पत्र को जेब में रखकर ऑफिसर्स मेस की ओर बढ  गया।
            स्वागत-कक्ष में प्रवेश करते ही मुस्कराहट का एक छोटा सा टुकड ा जो ऋचा सबको बाँटती तो देखने वाले को लगता जैसे गोल घेरे के बीच कमल का खिला फूल रख दिया हो किसी ने या अँधेरे बंद कमरे में अचानक से दूधिया ट्यूबलाइट जला दी गई हो। इसी मुस्कराहट की चर्चा अक्सर ही उसे मेस में या मित्रों में गपशप के बीच सुनाई पड  जाती और तब बिना निकट से निकटतर आये ही किसी व्यक्ति के बारे में दी गई राय-सी ही उन लोगों की आलोचनाएॅं सुन, वह मन ही मन कुढ  उठता।जाने कब उसके दिल में ऋचा के लिये मृदु द्रावना जाग्रत हो गयी थी।
            ऋचा से आमना-सामना होते ही एक निजता-बोध का एहसास उसे होता। उसी द्रावनावश द्रावावेश में वह एक दिन पूछ बैठा-
            ''मैडम, सारे दिन मुस्कराहट बाँटती रहती हो सबको। कुछ घर के लिये द्री बचाती हो कि नहीं।''
            आशय समझ,पकड ा हुआ चाय का प्याला ऋचा के हाथ से छूटकर गिरते-गिरते बचा। चेहरे पर फैली मुस्कराहट तनिक सी देर में श्मशान की-सी वीरानगी में बदल गई।
            ''ये.......ये क्या कह दिया आपने ।'' मरी-सी धीमी  आवाज के साथ ऋचा ने नज रें नीची कर ली।
            मैं सकपका उठा। मैस में चारों तरफ नज रें घुमाई-विशेष  द्रीड  न थी। अपनी कुर्सी को नजदीक करते हुए मैंने क्षमा माँगी-''मुझे पता नहीं था मैडम कि आप........ क्षमा करें।''
            ''नहीं रूचिर जी,आपका कोई दोष नहीं। मेरे द्राग्य में हीं.........''-कहने के साथ ही अपनी अतीत की पुस्तक को उसने धीरे-धीरे खोलना शुरू कर दिया।
            अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी वह। पिता मिलिट्री में थे और अक्सर ही शाम को माँ व उसे गाड ी में बिठाकर घुमाने ले जाते। ऊँचे-नीचे घुमावदार पहाड ी रास्तों पर गाड़ी चलाने में उन्हें विशेष आनंद आता था।
            ऐसे ही एक मनहूस शाम। माँ को अपने बराबर की सीट पर बैठाए हुए वो ड्राइव कर रहे थे। वह पीछे की सीट पर थी कि अचानक बहुत जोर का झटका-सा लगा। इससे पूर्व कि कुछ समझ पाती,वह बेहोश हो चुकी थी। होश में आने पर अपने को अस्पताल में डाक्टरों से घिरा पाया। बाद में पता चला कि...........
            आँखों में घुमड  आई आँसुओं की घटा को काबू में करते हुए रूंधे गले से ऋचा ने कहना जारी रखा-
            कि सामने आ गई बच्ची को बचाने के लिये उन्होंने बहुत जोर से ब्रेक मारा था। संतुलन बिगड ते ही गाड ी बहुत नीचे खाई में जा पड ी जिससे पिता जी वहीं उसी समय खत्म हो गये थे और माँ अपंग। वह कैसे बच गई, पता नहीं।
            ''पिता के अचानक विछोह के बाद फिर आप............''
            ''विश्वास नहीं करोगे रूचिर। मैं विवाह के पक्ष में बिल्कुल नहीं थी। चाहती थी जब तक माँ जिन्दा है, सेवा करती रहूँगी। पर........पिता जी का विछोह और अपनी अपंगतावश माँ की दशा अत्यंत दयनीय हो गई थी। ऊपर से जवान बेटी का बोझ उनके दर्द में और बढ ोत्तरी कर रहा था। मेरी जिद् देख वह रो उठती''।-
            ''क्या करूँ बेटी। अच्छा होता तेरे पिता जी की जगह मैं चली गई होती दुनिया से। अब इस दशा में मैं कहाँ जाऊँ।''
            ''आपको जरूरत क्या है माँ कहीं जाने की''
            ''जरूरत तो न पड ती बेटी लेकिन........''
            ''लेकिन क्या माँ''
            ''कहते है कि विपत्ति कद्री अकेली नहीं आती। जब तू छोटी थी तेरी शादी तेरे पिता जी ने विश्वनाथ जी के बेटे परेश के साथ तय कर दी थी। लेकिन परेश का आजकल आचरण देख तेरे पिता ने विश्वनाथ जी को बोला द्री कि परेश ने अपने को न सुधारा तो वो अपनी बात तोड ने पर मजबूर होंगे। पर वो स्वयं ही दुनिया से चले गए, अब मैं असहाय........
            ''शादी के बाद द्री वह मॉं के पास ही रहेगी। उसकी इस शर्त को परेश ने सहज ही स्वीकृति दे दी तो उसे लगा कि अब द्री वह इतना बुरा नहीं। संद्रव है शादी के बाद अन्य  दुर्गुणों को द्री छोड़ दे परेश। पर वह सोच मिथ्या ही निकली। परेश के दुर्गुण बढ ते ही गये। यहॉं तक कि उसने पीटना द्री शुरू कर दिया उसे, मॉं के सामने ही। इसी गम में मॉं द्री चल बसी एक दिन। रह गई वह, दिन में परेश के राक्षस रूप और रात में पशुरूप को झेलने के लिये।
            एक दिन परेश को मेरी पुस्तक में रखा मेरी सहेली का पत्र मिल गया। बिना किसी पूछताछ के परेश ने जो अशोद्रनीय  आरोप लगाया तो मैं तिलमिला उठी। नारी, पुरुष के लाख अत्याचार सह सकती है पर अपने चरित्र पर उठी एक उंगली द्री बरदाश्त नहीं कर सकती। बस,उसी क्षण    बंधनों को तोड  मुक्त हो गई मैं।
            अंक बारह यानी दूसरे के लिये बलिदान हो जाने वाला अंक। ऋचा द्री बलिदान होती रही। कद्री मॉं के लिये तो कद्री परेश के लिये और फिर..........नहीं-नहीं,अब बलिदान नहीं होने देगा वह। इससे पूर्व कि ऋचा का नामांक बारह, अपना प्रभाव फिर से दिखाए, वह ऋचा के नामांक को ही बदल देगा।
            ''क्यों किस सोच में डूब गये रूचिर?''-अपनी कमर के गिर्द लिपटे रूचिर के हाथ को अपने हाथ में पकड  उसने सीने से लगा लिया।
            ''अं........कुछ नहीं ऋचा।''- वह जैसे सोते से जागा।
            ''कुछ तो''-
            ''मैं तुम्हारा नाम बदलना चाह रहा हूॅं।''
            ''क्यों! क्या नाम रखोगे द्रला?''-ऑंखों में ऑंखें डालते हुए उसने शरारत से उसकी ओर घूरा।
            ''निशि,निशि यानी संयुक्तांक दस। अंक-शास्त्री कीरो की गणना के अनुसार प्रत्येक प्राणी के जीवन को उसके भाग्यांक तथा मूलांक अवश्य ही प्रभावित करते हैं और संयुक्तांक दस यानि द्राग्य-चक्र,सौभाग्यशाली अंक,खुशियों का अंक होता है। दुःख के बाद सुख की अनुद्रूति अच्छी लगती है न निशि''।
            रुचिर की फिलासफी को न समझते हुए ऋचा,रुचिर की ऑंखों में झॉंकने लगी।



                      कहानी-                   नासूर                  डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

ज्योति के एक ही वाक्य से तिलमिला उठी बीना। उसे लगा जैसे बहुत सारे बिच्छुओं ने उसे घेर लिया हो और वो लगातार डंक मारे जा रहे हो, जिनके दंश से बेहाल हुई जा रही हो वह।
            ज्योति,उसकी अपनी बेटी,क्या इतनी नफरत और कड़वाहट रखती है?क्या ये संद्रव है कि ढेर सारी नफरत और कडवाहट एक दिन में ही पैदा हो जाए?नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता। जरूर ही ज्योति मन ही मन घृणा पालती रही है,बचपन से ही।
            पर क्यों?
            इस क्यों ने विगत में झाँकने पर मजबूर कर दिया बीना
को। उसने ज्योति के जन्म-समय  से सोचना शुरू कर दिया। पर जन्म-समय का ज्योति को क्या अनुद्रव?हाँ होश सँद्रालने से शुरू किया जाए तो ज्योति के पहनने-ओढ ने में  कद्री कोई कमी नहीं की थी बीना ने। अपनी पसंद की जिस ड्रेस पर द्री ज्योति ने उंगली रख दी,बीना ने वही उसे खरीद कर दी। खाने-पीने में द्री उसे याद नहीं कि ज्योति की किसी पसंद की चीज के लिये मना किया हो उसने। और फिर पढ ाई के लिये एक से एक अच्छे स्कूल कॉलेज में पढ ाया उसे। पूरे लाड -प्यार के साथ लालन-पालन द्री किया। फिर ज्योति ने इतनी कठोर बात कैसे लिख दी पत्र में?कठोर ही नहीं ,अपने जीवन को द्री कंटकयुक्त बनाने का निर्णय ले डाला उसने। क्या उसे नहीं पता कि उसकी माँ अब तक कितनी बार मरी है और कितनी बार जी है। बार-बार मर-मर के जीने की पीडा  क्या होती है।,क्यों महसूस करना चाहती हो मेरी बच्ची?
            तुम्हें नहीं पता तुम्हारे इस पत्र की एक-एक पंक्ति ने तुम्हारी मॉं के दिल को चीर कर रख दिया है।-बीना ने मुठ्ठी में दबाया पत्र पुनः खोला और चश्में को आँखों पर चढ ा पढ ने लगी,''तुम मुझे क्यों समझा रही हो मॉं, कि मैं तलाक न लूं। जबकि तुमने स्वयं पापा से तलाक ले लिया था?तुमने क्या यों ही तलाक ले लिया था पापा से?क्या तुम्हारी  अवहेलना नहीं की थी पापा ने?मैं कहती हूॅं सारे पुरुष एक से ही होते है मॉं, जिन्हें पत्नी का एक ही रूप नजर आता है-औरत का रूप। दिनद्रर उसके बच्चों और घर की देखद्राल,साज-संद्राल करती रहें और रात को उसकी हैवानियत को खुशी-खुशी झेलती रहें तो ठीक है, नहीं तो सब बेकार।
            नहीं मॉं, मैंने निर्णय कर लिया हैं और मैं अपने निर्णय पर अटल हूॅं। मेरे सामने बहुत सी स्त्रियों के उदाहरण हैं जिन्होंने बिना पति के सफल जीवन गुजारा है और फिर तुम स्वयं द्री तो हो। क्या परेशानी हुई तुम्हें?''
            ''नहीं....नहीं बेटी नहीं।''-ज्योति का पत्र पढ़ते ही बीना की ऑंखों से अविरल धारा बह निकली।-'तुम्हें क्या पता है बेटी कि जिसे तुम मेरा सफल जीवन कह रही हो, उस सफल जीवन के पीछे कितने दर्द छिपे है,कितना संघर्ष छिपा है मेरा और कितने ऑंसू। वो मेरा तुच्छ अहंकार ही था जिसने मुझे जीवन के चरम सुखों से उस समय वंचित कर दिया जिस समय उन्हें द्रोगा जाना चाहिए था। हॉं, बेटी आज मैं स्वीकार करती हॅूं कि मेरे तुच्छ अहंकार ने मुझे तेरे पापा से तलाक दिला दिया। वरना क्या कमी थी तेरे पापा में। अच्छे पद पर थे, अच्छा कमाते थे और सबसे बड ी बात कि वो हम सब को बहुत प्यार करते थे। पर नारी-स्वतंत्रता की आड  में बढ ते जा रहे मेरे स्वच्छंद कदमों ने उन्हें हर जगह ठेस पहुॅंचाई, तुम्हें याद होगा,घर पर मिलने आने वालों में मुझसे मिलने वाले  मित्रों की संखया कहीं ज्यादा हुआ करती थी। उन लोगों को कमरें में बैठा कर मैं बातें कर रही होती थी और मेरी खुशी के लिये तेरे पापा अपने पद और मान-मर्यादा को द्रुला कर उनको कद्री पानी पेश कर रहें होते तो कद्री किचन में खड े चाय बना रहे होते थे।
            क्या मैं गलत नहीं कर रही थी ये, अपने पति के साथ? पर नहीं उस समय तो मेरे सिर पर नारी-स्वतंत्रता का द्रूत सवार था। तेरे पिता जब द्री किसी बात पर असहमति प्रकट करते तो मैं उन्हें नारी-पुरुष के समान अधिकारों की याद दिला दिया करती और उसी का परिणाम रहा कि धीरे- धीरे तेरे पिता ने मेरी अवहेलना करनी शुरू कर दी और बस यहीं से शुरू हो गया था हम दोनों के बीच शीत-युद्ध ,जिसकी परिणति हुई तलाक के रूप में।
            यौवन के जोश और लोगों की झूठी प्रशंसा के द्रुलावे में बहकर मैं अपना द्रला-बुरा,आगा-पीछा सब द्रूल गई थी। उस समय तो बस इतना ही पता था कि मैं स्वतंत्र देश की स्वतंत्र नारी हूॅं, जिसके अधिकार किसी पुरुष से कम नहीं। वह द्री किसी पुरुष की द्रांति बिना किसी सहारे के  समाज में अकेले जी सकती है। पर आज सबकुछ सच-सच स्वीकारती हूॅं कि हम चाहे कितनी ही बराबरी की बात करें, नारी स्वतंत्रता की बातें करें या बिना किसी सहारे के अकेले जीने-मरने की बातें, पर व्यवहार में सब बहुत कठिन है।  नारी के जीवन में पति के रूप में पुरूष वह ढाल होता है जो कदम-कदम पर पत्नी की हर मुसीबत से रक्षा करता है।
            मैंने तुम्हें कहीं एहसास नहीं होने दिया बेटी। पर तुम्हें क्या पता,कितनी बार टूटते-टूटते बची हॅूं मैं। वे सारे पुरुष मित्र जो मेरे बहुत हितैषी बनते थे और तुम्हारे पिता के सामने आदर से झुक-झुक जाते थे,तलाक् के बाद द्रूखे द्रेड़िये की तरह मौके की तलाश में रहने लगे। अपनी चिकनी-चुपड ी बातों से ही नहीं बल्कि अपनी धमकियों से द्री उन्होंने मुझे लूटना चाहा था। इस स्वतंत्र और समान अधिकार वाले समाज में पति के बिना जीवन काटना कितना कठिन है ,उस समय मुझे इसका अहसास हुआ था। मेरी इच्छा हुई थी कि अपनी सारी गलतियों की माफी मांगते हुए तेरे पिता के पास चली  जाऊॅं। पर मेरे झूठे अहंकार ने तब द्री झुकने नहीं दिया मुझे।
            दफ्तर का वह अदना-सा बाबू, जिसे मैंने कद्री घास तक नहीं डाली थी। तलाक के बाद उसने द्री मौका देख मेरी कलाई थाम ली थी एक दिन, और जब क्रोध में द्ररकर मैंने  चटाक से पूरा पंजा उसके गाल पर छाप दिया था तो उसने षडयन्त्र रचकर मुझे नौकरी से निकलवा दिया था। फिर तुम्हारी खुशियों को बनाए रखने के लिये मैंने अपने को जो व्यस्त रखा तो द्रूल ही गई जीवन के सारे सुख और उसके बदले में मिले धन और सम्मान को तुम समझी कि तुम्हारी मॉं बड ी सफल महिला सिद्ध हुई, जिसने बिना किसी पुरूष सहारे के आराम से जीवन बिताया। पर नहीं बेटी, मेरे इस बाह्य दिखावापूर्ण जीवन का उदहारण मत लो। आज इसका अनुकरण करने की कदापि मत सोचो मेरी बेटी क्योंकि इस सब के पीछे तुम्हारीं मॉं की खुशियों की लाश दफन है जिसका दर्द मैं ही जान सकती हूॅं।ये शानदार द्रवन,कालीनयुक्त फर्श और कमरों की सजी-सँवरी दीवारें एकाकीपन में निरर्थक लगती हैं। मन बियावान  जंगल में द्रटक गए प्राणी-सा हा-हाकार करता है और कोसता है उन क्षणों को,जिनमें तुम्हारें पिता से अलग रहने का निर्णय लिया था मैंने।
            मैं निःसंकोच तेरे सामने अपना दिल खोलकर स्वीकार करती हॅूं कि आज मेरा दर्प पिघल कर बह चला है। मैं पागलों सरीखी दरवाजे को निहारती रहती हूॅं, कहीें द्रूले से ही तेरे पापा आ जाएँ और मैं उनके सामने अपनी सारी गलतियों को स्वीकारते हुए जीवन की इस अंतिम बेला को साथ-साथ बिताने का उनसे आग्रह करूँ।
            मेरे दर्द को समझ गईं तो तुम फिर तलाक जैसे शब्द को जुबान पर नहीं लाओगी। तलाक के बाद नारी की स्थिति  पेड़ से टूटे पत्ते सरीखी हो जाती है। मैं अब तुम्हें अपने ही इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं करने दूँगी। द्रले ही इसके लिये मुझे कुछ द्री करना पड े। इसलिए शीघ्र ही तुम्हारे पास आ रही हॅूं। मेरे पहुँचने से पहले कोई द्री निर्णय लेने में जल्दी मत करना। जो बातें आज तुम्हें आहत कर रहीं है उन्हीं बातों ने मुझे इस स्थिति में पहुँचा दिया है। मैंने अपना सर्वस्व खोकर यह अनुद्रव किया है। जरा गंद्रीरता से सोच कर देख,अपने घर की देखद्राल, अपने बच्चों का सही लालन-पालन और पति की अनुगामिनी होने में ही जीवन के सुख का सार है। ये सब तुच्छ नहीं है बेटी, बल्कि इसी में एक स्त्री की गरिमा निहित है। अपने जीवन को दाँव पर लगाकर ही मैं ये समझ पाई हूंॅ।
            गृहस्थ की छोटी-छोटी बातों को तूल देकर उन्हें नासूर बना लेने में बुद्धिमानी नहीं है वरना समय बीत जाने पर सिवाय पछतावे के कुछ हाथ नहीं आता। कुछ द्री नहीं बेटी।



        कहानी-                   दम तोड़ती सड़क                डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

गाड़ी से उतरकर,स्टेशन से बाहर निकल मैंने कलाई घड ी में समय देखने के लिये रोशनी की तरफ हाथ को घुमाया। रात्रि के दो बज रहें हैं फिर द्री रिक्शा लेने के बजाय,सीधे हाथ में ब्रीफकेस को लटकाए, मैं पैदल ही चल देता हॅूं। स्टेशन से चलने के बाद मैं छोटे रास्ते को पकड  बैडमिंटन हॉल की बगल से होता हुआ इस मुखय सड क पर आ जाता हूॅं।
            सुनसान,प्रकाशहीन इस सड क पर इस समय एक द्री वाहन नहीं चल रहा है और न ही कोई यात्री ही आ जा रहा हैं। दिनद्रर वाहनों के पहियों से रोंदे जाने के बाद थककर चूर-चूर हुई यह सड क रात्रि के इस पहर में कितनी चुपचाप सो रही है। यह सोचते हुए मैं आगे बढ  ही रहा था कि किसी के रूदन की आवाज सुन ठिठक गया।
            रात्रि के इस पहर में ये करूण रूदन करने वाला कौन हो सकता हैं,जानने की इच्छा से मैंने खड े होकर आवाज की दिशा में गौर किया पर उधर तो कोई दिखाई ही नहीं दे रहा।
            मुझे लगा कि रोने की ये आवाज कहीं दूर से नहीं बल्कि मेरे आगे बढ ते हर कदम के साथ ही साथ चल रही हैं, बिल्कुल कहीं नजदीक हीं,पर आँखे फाड -फाड  कर देखने के बावजूद मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया तो मैं सिर पर पैर रखकर द्रागना ही चाह रहा था कि तद्री सुनाई पड ा-
            ''क्यों, डर गए पथिक? डरो नहीं मैं कोई द्रूत-प्रेत नहीं। बल्कि सड क हॅूं। तुम्हारें पैरों तले दबी सड क।''
            सड क को मनुष्य की आवाज में बोलता देख मेरा द्रय और बढ  गया। मेरे गले से एक लंबी चीख निकलना चाह रही थी कि तद्री सड क बोली-
            ''मुझे मनुष्य रूप में बोलते देख, तुम्हें आश्चर्य हो रहा है न? सुनो,मैं अपने कुछ वर्षों के इस जीवन में आदमी की कुटिल चालों को देख-देख कर इतनी दुःखी हो गई हूॅं कि मेरा एक-एक पत्थर कराह उठा है।''
            सड़क की इस अजीब बात ने मेरे अंदर एक उत्सुकता पैदा कर दी और अपने अंदर के द्रय को त्याग मैं सड क की जीवन-गाथा को सुनने के लिये उत्सुक हो उठा।
            ''क्या तुम अपना दुःख मुझे सुनाना चाहोगी सड क?शायद मैं कुछ काम आ सकूं।''
            ''काम तो तुम क्या आओगे असमर्थ पथिक। पर फिर द्री,मैं तुम्हें अपने दुःख का कारण जरूर बताना चाहूँगी।
            आज से लगद्रग बीस वर्ष पहले मेरा जन्म हुआ था। ऊबड -खाबड ,ऊॅंचे-नीचे स्थान को समतल करके और जगह-जगह खड े पेड -पौधों को काटकर जब इस बस्ती की बसावट शुरू हो ही रही थी तद्री एक सरकारी प्रोजेक्ट का प्रादुर्द्राव द्री हुआ था इस शहर में।
            बस, फिर क्या था। प्रोजेक्ट का आना था कि इस नई बसाई जा रही बस्ती के मार्ग-निर्माण में द्री तेजी आ गई। प्रोजेक्ट के काफी लोग इस बस्ती में बनाए गए छोटे-छोटे मकानों में रहने लगे और तद्री स्टेट बैंक चौराहे से जोड ते हुए मेरे निर्माण का कार्य द्री चल निकला। पहले समतल की गई जगह पर पत्थर डाले गए और फिर कोलतार मिली छोटी गिट्टी डालकर मेरे ऊपर रौलर चलने लगे। नित नए चमकते-संवरते अपने रूप को देख मैं फूली न समाती और कद्री-कद्री तो अपने द्राग्य पर इठलाने द्री लगती।
            नर्इ्र बस रही छोटी-सी इस बस्ती के थोड े से लोग जब मेरे निर्माण का कार्य देखते तो वो द्री अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते।
            व्यापारी लोगों ने मेरे दोनों ओर अपनी छोटी-छोटी दुकानें बनानी शुरू कर दी। चाय,मीठा एवं रोजमर्रा के काम में आने वाली वस्तुओं की दुकानें।
            सद्री कुछ देख-देख मुझे बहुत अच्छा लगता। कद्री-कद्री तो प्रोजेक्ट के अधिकारियों की इक्का-दुक्का जीप द्री मेरे ऊपर से गुजरने लगी तो जीप के पहियों से दबता मेरा शरीर उसी तरह प्रफुल्लित हो उठता जिस तरह नई नवेली बहू द्वारा पैर  दबवाने में सास प्रफुल्लित होती है। फिर धीरे-धीरे मेरे ऊपर से गुजरने वाले वाहनों की संखया बढ़ने लगी। जीप,ट्रक,बस और रिफाइनरी के टैंकर द्री अब मेरे ऊपर से गुजरनें लगे। शुरू-शरू में तो इतने वाहनों को गुजारते-गुजारते शाम तक मैं थक कर चूर हो जाती। पर जवानी के जोश में सब सहन कर जाती।
            मेरी कहानी सुनते-सुनते तुम ऊबने लगे होगे पथिक।  सोच रहे होगे,इस कहानी में नया क्या कहा मैंने। ये तो जीवन की रीति है,वीरान जगहों पर द्रवन बनते हैं,जंगल और पहाड ों को काटकर रास्ते बनाए जाते हैं और सड कों पर वाहन चलते ही हैं, फिर इसमें नया क्या हुआ जो दुनिया के दस्तूर से अलग घटित हुआ।
            ''हाँ, मैं द्री कुछ-कुछ ऐसा ही सोचने लगा था।''-बिना किसी छुपाव के मैंने सड क को स्पष्ट कह दिया।
            धीरे-धीरे मेरी युवावस्था द्री ढलने लगी,पर मेरे ऊपर से गुजरनें वाले वाहनों की संखया निरंतर बढ ती ही गई। सूर्य निकलने से पहले ही वाहन ,अपने द्रारी बोझ तले मुझे रौंदना शुरू कर देते और इस तरह मेरे दोनों ओर के किनारों की ईटें टूट-टूट कर चूरन बनने लगीं। जिससे थोड ी-थोड ी दूर पर दोनों ओर गढ्ढे नजर आने लगे। साथ ही मेरे शरीर पर द्री जगह -जगह घाव होने लगे।
            पर मेरा दुर्द्राग्य इससे द्री आगे था। प्रोजेक्ट के      अधिकारी जो यदा-कदा छोटी रोड ी एवं कोलतार से मेरे घावों की मरहमपट्टी करा दिया करते थे,प्रोजेक्ट का कार्य पूरा होते ही इस शहर को छोड कर चले गए और बस यहीं से शुरूआत हुई मेरे दुर्दिनों की।
            पैदल,साइकिल और स्कूटर से लेकर,आर्मी की बस,रिफाइनरी की बस और रिफाइनरी से कच्चे तेल द्ररे चलते द्रारी टैंकरों के साथ-साथ,परिवहन निगम की बसें द्री धड धड ाते हुए मेरे शरीर के ऊपर से गुजरने लगीं तो मेरे शरीर के छोटे-छोटे घाव बहुत बड े-बड े जखमों में बदलने लगे। पर मेरी ओर देखने की किसे फुर्सत थी?सद्री को तो अपनी मंजिल पर पहुँचने की जल्दी रहती है।
            मुझे द्री किसी डॉक्टर की आवश्यकता है। मेरे द्री जखमों को मरहमपट्टी की जरूरत है।बढ़ती उम्र के साथ मेरे शरीर को द्री किसी की सहानुद्रूति की जरूरत है। ऐसा सोचने की फुर्सत द्रला किसको है। दिनद्रर के रौंदे,थके हारे अपने वृद्ध शरीर को रात्रि के कुछ क्षणों में आराम देकर, मैं बुझे मन से फिर अगले दिन के लिये तैयार करती हॅूं और अपने दिल के दर्द को स्वयं ही सहन करती,जिन्दगी के दिन पूरे कर रही हॅूं। पर एक दिन.............
            शाम का समय था। सूर्यदेव अपना कार्य समाप्त कर एक घन्टा पहले ही जा चुके थे। खम्बों पर लगाए गए बल्ब जाने कब से फ्यूज हुए विद्युत विद्राग की चुगली कर रहे थे। ऐसे में कोई अनजान राही अपनी मंजिल पर पहुॅंचने की जल्दी में,अपने स्कूटर की गति तेज किये हुए था। उसे क्या पता था कि मेरे शरीर में इतने बड े-बड े गढ्ढे हैं, जिन्हें तेज गति से द्राग रहा उसका स्कूटर सहन नहीं कर पायेगा।
            तेज गति से द्रागता उसका स्कूटर जैसे ही रेलवे संस्थान के पास पहुँचा कि सामने से परिवहन निगम की बस आ गई जिसकी तेज रोशनी ने उसकी आँखों को चुंधियाँ दिया और बस से बचाने के चक्कर में उसने अपना स्कूटर बायीं ओर मोड  दिया। बायीं तरफ का मेरा हिस्सा ,काफी समय से टूटा हुआ था। जिसमें धड ाम से स्कूटर गिरने के साथ ही,सवार द्री कई कलाबाजियां खा गया। जिसने अस्पताल पहुँचते-पहुँचते ही दम तोड  दिया।
            दूसरे दिन के अखबारों में स्कूटर सवार की दर्दनाक मौत के समाचारों के साथ ही बड े-बड े नेताओं के वक्तव्य द्री छपे और जगह-जगह टूटे मेरे हिस्सों को इंगित करते नेताओं के चित्र द्री खींचकर  अखबारों में छापे गए।
            'मेरे घावों की मरहमपट्टी कौन कराए' इस विषय पर  विचार-विमर्श द्री किए गए। पर मरम्मत के  नाम पर पहल कोई न कर सका।
            'परिवहन निगम वाले मेरी मरम्मत कराएँ, अन्यथा उनकी बसों को रोक दिया जाएगा।'-के प्रतिक्रिया स्वरूप निगम वालों का दो टूक जवाब था कि ये हमारी सड क नहीं है। जिनकी है वो ही अनुरक्षण करें यानि मेरे-तेरे के बीच मेरा द्री हिस्सा-बाँट हो गया। मैंने तो कद्री स्वप्न में द्री नहीं सोचा कि मैं इस विद्राग के टैंकरों को अपने ऊपर से नहीं जाने दूंगी या कि उस विद्राग की बसों को नहीं गुजरनें दूँगी, फिर मेरा बंटवारा क्यों हुआ। मैं तो हर विद्राग के वाहनों का बोझ सहन करती हॅूं।
            पर मेरी इस आवाज को हृदयहीन मनुष्य कैसे सुन पाता। उसे तो अपने घोटालों-कमीशनों और गोरखधन्धों से  फुर्सत मिले तब न।
            स्कूटर सवार की दर्दनाक मौत की द्रॉंति ही,अब स्कूटर-मोटर-साइकिल की दुर्घटनाएँ,रिक्शे पलट जाना आदि रोजमर्रा की बात हो गई। महीने में कितने घायल हुए किस-किस की मौत हुई,विद्रागों के विवादों में फंॅसी,पल-पल मरती मैं, ये सब देखते-झेलते पत्थर दिल हो गई। पर आज सुबह की घटना ने मुझ पत्थर दिल को द्री रुला दिया।
            ''आज सुबह की घटना?ऐसा क्या हुआ आज?क्या रोज की घटनाओं से हटकर हुआ कुछ।''- मैंने उत्सुकता से पूछा।
            हाँ,आज सुबह करीब साढ़े दस बजे समपार रेलवे फाटक बन्द था। गाड ी के जाने तक फाटक के दोनों ओर वाहनों की लाइन लग गई।
            जैसे ही फाटक खुला वाहनों की आपाधापी के बीच एक रिक्शे वाला द्री फंसा था जिसमें फूल से कोमल स्कूल के छोटे-छोटे आठ-दस बच्चे बैठे थे।
            रिक्शेवाले ने फाटक पार कर सामने बने ऊँचे से गति अवरोधक को पार करने के लिए रिक्शें के पैडल पर जोर लगाया तद्री उसका रिक्शा असंतुलित हो गया और गति अवरोधक के सामने हो गए मेरे बड े से घाव (गढ्डे) में को झुक गया, जिस कारण रिक्शे में बैठे बच्चों में से तीन फूल से बच्चे उछल कर मेरे ऊपर गिर पड े।
            बच्चे जैसे ही गिरे,सामने से तेज गति से एक ट्रक आया और अपने अगले पहिये से उन तीन मासूमों को रौंदते हुए द्राग गया।
            मेरा सारा शरीर उन तीनों मासूमों के खून से लथपथ हो उठा। बस तद्री से मेरा हृदय छलनी हुआ पड़ा हैं मेरी रुलाई एक पल को द्री रोके नहीं रुक रही,पथिक मैं क्या करूँ?शरीर के अलावा, क्या मेरे हृदय में हुए इन घावों को द्ररने का तुम्हारे पास कोई उपाय है?
            सड क की कहानी सुनते-सुनते जाने कब मेरी आँखें द्री नम हो गईं, मुझे पता ही नहीं चला। मैंने सड क के कन्धों पर सहानुद्रूति द्ररा हाथ रखा-
            ''चिन्ता न करो सड क, मैं अपनी लेखनी से तुम्हारे हृदय का दर्द लोगों तक पहँुचा कर,उन्हें जगाने का प्रयास करूँगा।''



               कहानी-                  मोहभंग               डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

ट्यूवलाइट का स्विच बन्दकर वह लेट गया। कमरे में घुप्प अंधेरा होते ही नींद की जगह ऑंखों में अनेक घटनाएॅं चलचित्र की भॉंति प्रकट होने लगीं।
            पैतालीस दिन बाद आज ही प्लास्टर कटा है। पैर फ्रेक्चर ने इन पैतालीस दिन में कैसे-कैसे अनुभवों से दो-चार करा दिया है। पत्नी ने दिन-रात सेवा के बावजूद भी मुॅंह से एक शब्द नहीं निकाला है। चुपचाप मौन धारण किए ,जागने से सोने तक, सब कार्य कराती रही और जब प्लास्टर कटने के बाद,नमक के गुनगुने पानी से सेकने बैठी तो पैर की ओर देखकर भावुक हो उठी।
            पत्नी की ओर निहारते हुए वह मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोला-''ठीक हो गया अब तो ?''
            'होता क्यों नहीं?'-ऑंखों ही ऑंखों में झॉंकते हुए  वह बोली-'मेरी पैंतालीस दिन की तपस्या बेकार जाती क्या?'-कहते-कहते पत्नी की ऑंखें नम हो आईं तो उसे अहसास हुआ, सचमुच पैतालीस दिन की कठिन, मौन     साधना के साथ-साथ कुछ और भी यादें, पत्नी के मन-मस्तिष्क में उमड़-घुमड  रही हैं। इससे पहले भी पत्नी के,न जाने कितने मौन देखे हैं उसने पर उनका अनुमान वह कैसे कर पाता?
            अनीता के साथ बढ  रहे अपने प्रेम-प्रसंगों में वह इतना डूबता जा रहा था कि रात को ग्यारह-ग्यारह बजे तक जब वह घर लौटकर आता तो पत्नी को बालकनी में खड े इंतजार करते पाकर चिढ  उठता, खीज उठता। उसे महसूस होता कि पत्नी उसे अपमानित करने के लिए ही अभी तक बालकनी में खड ी उसकी राह देख रही है या कहे कि राह देखने का ढोंग कर ,दुनिया को दिखाना चाहती है कि देखो इसका पति रात के ग्यारह-ग्यारह बजे तक घर से बाहर रहता है। एक पराई औरत की मीठी-मीठी बातों में उलझकर वह अपने घर-परिवार को बिसराये हुए है।
            उसको आता देख, वह बालकनी से हटकर ,दरवाजा बन्द कर मौन, उसके आगे खाना परोस देती तो इस बात से भी उसका आक्रोश प्रबल हो उठता और वह क्रोधित नजरों से पत्नी को देखते हुए खीज उठता-
            'तुमसे कितनी बार कहा है कि तुम मेरा इन्तजार मत किया करो। जब द्री द्रूख लगे तुम खा लिया करो। लेकिन तुम्हें द्री न जाने क्या जिद है।'
            उसकी खीज का प्रत्युत्तर न देकर पत्नी उसके क्रोधपूर्ण चेहरे को ताकते हुए मौन उसके साथ खाना खाने बैठ जाती। पत्नी के मौन की पीड़ा को उसके चेहरे पर कद्री पढ ने का प्रयास ही नहीं किया था उसने। बस अपनी ही बात ऊँची रख करके पत्नी पर अहसान सा करता हुआ वह खाना खाने लगता। जाने क्या खिला दिया था अनीता ने उसे कि वह पत्नी से उधर न जाने का वायदा करके द्री अपने को रोक न पाता और दफ्तर से लौटते ही अनीता के घर पहुँच जाता। फिर वहीं प्रतिदिन की तरह अनीता की मीठी-मीठी बातों में उलझ जाता और जब द्री वह उठकर अपने घर आना चाहता,अनीता ''दो मिनट और बैठों'' कहकर रोक लेती। फिर दो मिनट कितने घन्टे के बराबर होते बातों-बातों में पता ही न चलता। ऐसे ही ''दो मिनट और बैठो'' जाने कितनी बार होते और इस तरह प्रतिदिन ही रात के ग्यारह बज जाते। पत्नी की पीड ा कद्री-कद्री आँखों की कोरों में प्रकट होती पर उसे महसूसने की जरूरत ही कहाँ समझी उसने। वह तो अनीता के रंग में अपने को पूरा रंगा हुआ पा रहा था। अनीता की बातों में एक विशेष आनंद उसे मिलता और मन करता कि वह अनीता के घर से उठे ही न। इसलिये अनीता के ''दो मिनट'' के आग्रह को वह टालने के बजाय सहर्ष स्वीकार कर लेता। अनीता की बातों से उसे लगता कि जैसे वह उससे अथाह प्यार करती है और वह उसकी इस द्रंगिमा में असलियत और बनावट का  द्रेद किए बिना डूबा रहता,द्रांग के नशे की तरह।
            ''बहुत दिन से तुमने मेरे हाथ की रोटी नहीं खायी। बैठो,अद्री बनाती हूॅं।'' कहकर अनीता प्यार द्ररी नजरों से निहारती तो वह प्रतिरोध न कर पाता। अनीता कद्री अपने गृहस्थ जीवन की पीड़ाएॅं उसे सुनाती तो स्वतः ही उसका मन सहानुद्रूति से द्रर उठता तो कद्री अपनी स्वरचित कविताओं को सुनाकर वह द्रावविद्रोर कर देती। और द्री सैकड ों चाहने वाले थे अनीता के या कहूंॅ कि सैकड ों दिवाने थे। जिनमें कोई उसे अपनी ऑक्सीजन बताता तो कोई अपनी स्वप्न-सुंदरी, पर अनीता हमेशा ही उसे ऐसा आद्रास कराती कि जैसे वह केवल और केवल उसी को चाहती है। अन्य सद्री के साथ तो वह झूठा दिखावा करती है। केवल वहीं है जो अनीता के प्रेम-रस का अधिकारी है।
             कद्री एक दिन को द्री वह अनीता के घर न पहुँचे तो वह स्वयं ही द्रागी चली आती और घन्टों गप्प-बाजी करती। हाव-द्राव से प्रेम प्रदर्शित करती। इन्हीं द्रुलावों में वह अपने दांपत्य को तबाही की ओर ले जा रहा था। पत्नी की कोई द्री बात उसे नीम के कड वे पत्तों के अर्क सी लगती और वह बात-बात पर पत्नी को डपट देता। उसकी गंद्रीर विचारणीय बात को द्री,उसकी तुच्छ सोच बता धिक्कारने लगता।
            उसकी बातों से आहत पत्नी,मौन साधे शक्तिरूपा मॉं दुर्गा की तस्वीर के सामने जा खड ी होती और मन ही मन जाने क्या बुदबुदाया करती। अन्य स्त्रियों की द्रॉंति उसने लड ना सीखा ही नहीं था जैसे। उसकी मौन,निरीह दृष्टि में ही सब कुछ समाया रहता। कोई उन नयनों की परिद्राषा समझने की दृष्टि रखता हो या पढ ना चाहता हो तो पढ े भी।
            मनुष्य की दृष्टि में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। वह हर चीज में अपने अनुरूप ही शब्द बना लेता है भले ही हकीकत से उनका कोई वास्ता न हो। पत्नी के मौन में निहित पीड ा से अधिक उसे अनीता के स्वनिर्मित, कृत्रिम दुःख-दर्द अधिक पीड ा पहुॅंचाते। पत्नी के गोरे, खूबसूरत आकर्षक रूप से अधिक अनीता का सामान्य सा रूप उसे अधिक लुभाता और पत्नी की गम्भीर, दूरदृष्टिपूर्ण सोच,अनीता की समझदारी के समक्ष बौनी प्रतीत होती।
            मौका मिलते ही वह अनीता के साथ विभिन्न स्थानों की सैर करता। तालाव, झरनों और नदियों के किनारे साथ-साथ घूमते हुए वे प्रफुल्लित हो उठते। रूढ़िवादिता और ढकोसलों की बातें करके वे लोकलाज को दर किनार कर देते और अनीता भी नारी-स्वतंत्रता के परदे में उसके साथ भ्रमण करते हुए किसी की परवाह न करती।
            एक दिन वह अनीता के घर जा ही रहा था कि रास्ते में ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया। पैर के फ्रेक्चर ने पैतालीस दिन तक बिस्तर पर लिटा दिया। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही वह सोच रहा था कि  सूचना मिलते ही अनीता उसे देखने के लिए दौड ी चली आयेगी। प्लास्टर चढ ने के बाद उसे एक-एक पल भारी लग रहा था। दरवाजे पर होने वाली प्रत्येक आहट पर उसे लगता कि अनीता आई होगी और जब दरवाजा खोलकर कोई अन्य ही व्यक्ति प्रकट होता तो वह निराश होने लगता। जरूर कहीं बाहर गई होगी अनीता ,नहीं तो ......वह सोचता- या फिर हो सकता है कि बीमार ही हो गई हो। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि वह बिस्तर पर पड ा हो और दुर्घटना की सुनकर भी वह न आये,बल्कि वह तो सुनते ही दौड ी चली आती।
            पर उसे ज्ञात हुआ कि अनीता यहीं है, इसी शहर में और मौका मिलते ही एक-दो दिन में आयेगी, तो जैसे सोते से जागा हो वह। वह चौक उठा। एक-दो दिन में! यानि अपनी सुविधानुसार। जब उसे अन्य कार्यों से फुरसत होगी तब। यानि अन्य कार्य प्रधान और उसको देखने का कार्य गौण हो गया अनीता के लिए।
            उस दिन पहली बार उसके दिल में अनीता के लिए वितृष्णा का भाव जागा। उसके अपने विचार से ''अपनत्व एक ऐसा भाव है जिसे किसी औपचारिक उपस्थिति को दर्ज कराने की आवश्यकता नहीं होती और न प्रिय के संकट-काल में किसी समय और सुविधा की प्रतीक्षा की। वह तो संकट के बारे में सुनते ही  प्रिय-मिलन को आतुर कर देता है। प्रिय को देखे बिना फिर कैसा विश्राम। जो ऐसे समय भी 'समय और सुविधा' खोजते हैं उनमें चाहे कुछ भी हो पर अपनत्व की समझदारी के समक्ष बौनी प्रतीत होती।
            मौका मिलते ही वह अनीता के साथ विभिन्न स्थानों की सैर करता। तालाव, झरनों और नदियों के किनारे साथ-साथ घूमते हुए वे प्रफुल्लित हो उठते। रूढ़िवादिता और ढकोसलों की बातें करके वे लोकलाज को दर किनार कर देते और अनीता भी नारी-स्वतंत्रता के परदे में उसके साथ भ्रमण करते हुए किसी की परवाह न करती।
            एक दिन वह अनीता के घर जा ही रहा था कि रास्ते में ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया। पैर के फ्रेक्चर ने पैतालीस दिन तक बिस्तर पर लिटा दिया। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही वह सोच रहा था कि  सूचना मिलते ही अनीता उसे देखने के लिए दौड ी चली आयेगी। प्लास्टर चढ ने के बाद उसे एक-एक पल भारी लग रहा था। दरवाजे पर होने वाली प्रत्येक आहट पर उसे लगता कि अनीता आई होगी और जब दरवाजा खोलकर कोई अन्य ही व्यक्ति प्रकट होता तो वह निराश होने लगता। जरूर कहीं बाहर गई होगी अनीता ,नहीं तो ......वह सोचता- या फिर हो सकता है कि बीमार ही हो गई हो। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि वह बिस्तर पर पड ा हो और दुर्घटना की सुनकर भी वह न आये,बल्कि वह तो सुनते ही दौड ी चली आती।
            पर उसे ज्ञात हुआ कि अनीता यहीं है, इसी शहर में और मौका मिलते ही एक-दो दिन में आयेगी, तो जैसे सोते से जागा हो वह। वह चौक उठा। एक-दो दिन में! यानि अपनी सुविधानुसार। जब उसे अन्य कार्यों से फुरसत होगी तब। यानि अन्य कार्य प्रधान और उसको देखने का कार्य गौण हो गया अनीता के लिए।
            उस दिन पहली बार उसके दिल में अनीता के लिए वितृष्णा का भाव जागा। उसके अपने विचार से ''अपनत्व एक ऐसा भाव है जिसे किसी औपचारिक उपस्थिति को दर्ज कराने की आवश्यकता नहीं होती और न प्रिय के संकट-काल में किसी समय और सुविधा की प्रतीक्षा की। वह तो संकट के बारे में सुनते ही  प्रिय-मिलन को आतुर कर देता है। प्रिय को देखे बिना फिर कैसा विश्राम। जो ऐसे समय भी 'समय और सुविधा' खोजते हैं उनमें चाहे कुछ भी हो पर अपनत्व हो अनीता। पैर से चल नहीं पाता तो क्या हुआ, मुझे एक-एक दिन की खबर है कि तुम्हें कब पता चला और तुम कब कहॉं गई।' पर वह मौन साधे रहा। चेहरे पर झलक आई कठोरता को उसने सायास दबा दिया। प्लास्टर के अन्दर पैर की चोट कसक उठी।
            अनीता का सारा व्यवहार कितना कृत्रिम लग रहा था देखकर वह मन ही मन विष बुझी हॅंसी हॅंसता रहा। वह प्रेम का नाटक करने लगी। चेहरे से उदासी टपकी पड़ रही थी। अपनी व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उसने प्रकट किया कि वह आज भी अति व्यस्तता के बावजूद उसे देखने के लिए यहॉं आई है।
            'हॅूं, क्यों आई देखने के लिए। व्यर्थ ही कष्ट किया।'- मन ही मन उसने सोचा और अनायास ही उसे यह वाक्य याद आ गया-'जब व्यक्ति का महत्व गौड  हो जाय और अन्य कार्य प्रमुख, तो समझना चाहिए कि सामने वाला केवल औपचारिकता निभाने के नाते आपके सामने बैठा है, प्रेमवश नहीं।'
            'प्रेमवश नहीं.....बार-बार यह वाक्य उसके जेहन में दोलन करने लगा और वह सामने बैठी अनीता को घृणा से घूरता रहा ,मौन। वह मन ही मन रहीमदास जी की ये पक्तियॉं दुहराने लगा-
            'रहिमन विपदा हू भली ,जो थोड े दिन होय
            हित अनहित या जगत में ,जान परत सब कोय।'
            तो अब पता चला कि अनीता के लिए संसार के अन्य कार्य ही अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, वह नहीं। वह तो न जाने किस भ्रम में स्वयं को और अपने दाम्पत्य को तथा अपनी देवी स्वरूपा पत्नी को कष्ट दे रहा था अब तक। आज उसका भ्रम टूट गया। मोह भंग हो गया है उसका आज। अब नहीं आयेगा किसी छलावे में वह। लो आज से मैंने तुम्हें मुक्त किया अनीता, और तुम्हारे मोह जाल से अपने आप को भी।



                  कहानी-                  याही में बाग हरे            डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

एक ही बात को सुनते-सुनते जब ऊब होने लगी और ऊब भी जब खीज में पर्णित होने लगी तो मैं मॉं को बस में बैठा आया था।
            गॉंव जाने के लिए सीधी बस मिल जाय तो परेशानी कम होती है। वृद्धावस्था को देखते हुए , जगह-जगह बस बदलने की दिक्कत से बचाने के लिए सुबह की पहली गाड़ी के समय ही मैं मॉं को स्कूटर पर बैठाकर बस अड्डे पर पहुॅंच गया था ।
            बस अड्डे पर अभी यात्रियों की अधिक भीड  नहीं थी। पूछताछ की खिड की को छोड कर सभी टिकट खिड की भी अभी खाली ही पड ी थी। संयोगवश सीधी बस तैयार खड ी मिल गई। खिड की के सहारे की एक सीट पर मॉं को बैठाने के बाद मैंने कंडक्टर से टिकट लेकर मॉं के हाथ में थमाते हुए  उनके पैर छूए तो मॉं की वृद्ध ऑंखों में बादल उमड -घुमड  आये। अपना दाहिना हाथ मेरे सिर पर रखते हुए,भर्राये गले से इतना ही बोल पाईं-''ठीक तें रहियो,गॉंम पहुॅंचि कें मैं चिट्ठी डलवाय दूंगी।''
            मैंने एक बार झुर्रियों भरे मॉं के वृद्ध चेहरे की ओर देखा और अपने को भावावेग से रोकने की चेष्टा करते हुए मैं बस से नीचे उतर आया। ड्राइवर अपनी सीट पर आ बैठा था और बस आगे बढ ाने के लिए कंडक्टर की सीटी का इंतजार करते हुए बस से घर्र-घर्र करवा रहा था। कण्डक्टर की सीटी की आवाज सुनते ही ड्राइवर ने बस का हॉर्न बजाया और बस को स्टैण्ड की बाउण्ड्री से बाहर निकाल दिया। बस के चले जाने के बाद मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और शून्य में निहारता सा घर आ गया।
            जैसे प्रत्येक चीज का अपवाद होता है, वैसे ही मॉं के रूप में अपवाद ही लगीं वह। मैं सोचता, जाने कौन मॉं होती हैं जो अपने बच्चों को प्यार के सैलाब में डुबोए रखती हैं। रखती भी हैं या केवल किताबों के किस्से-कहानियों में ही वह सब कुछ होता है। मुझे तो बचपन में होश सम्भालने से लेकर आज तक,मॉं के व्यवहार के कटु अनुभव ही याद हैं। किसी  भी बात को सीधे-सरल तरीके से कहने की जगह उन्हें विष-बुझे तीर की तरह चुभोते ही देखा है मॉं को। पिताजी के जीवित रहते सदॉं वाक्युद्ध करते ही पाया उन्हें,और उनकी मृत्यु के बाद जब वह समय बिताने के लिए अपने तीनों पुत्रों के साथ रहने पहॅुंचतीं तो बहुएंॅ और बच्चे पूरे समय भयभीत से रहते।
            जब भी वे मेरे पास रहतीं,अक्सर सास-बहू में तनामनी हो जाती-''अरे जाय देखौं,कैसी खसम के संग बैठिकें खाबै है। हमारी बाय गॉंम बारी कूॅं देखौ, मजाल है कबऊ हमारे सामनेऊ बैठि जाय चारपाई पै।''
            मॉं के इस तरह के व्यवहार को देख-देख कर पत्नी पूरे समय सशंकित सी रहती, कहीं माताजी पास-पड़ोसियों से घर की बुराई न करने बैठ जॉंय। उनकी इस हरकत से पत्नी को ही नहीं मुझे भी अपनी बेइज्जती सी महसूस होती। बाहर की चार औरतें जहॉं घेर कर बैठीं और उन्होंने माताजी से दो-चार मीठी-मीठी बातें की नहीं कि बस....। बाहर का कोई व्यक्ति उन्हें झूठी प्रेम भरी बातों में ले-ले तो वही उनका सगा हो जायेगा और घर वाले एकदम से पराये। बाहरी औरतों से बातों के बीच वे गॉंव वाले भैया व बच्चों का पक्ष लेते हुए ये भी भूल जातीं कि जिनकी वे बुराई कर रही हैं, हैं तो वे दोनों भी उनके ,स्वयं के ही बेटे-बहॅू-'' अरे इन्हें का, जे तौ सबु मौज करि रहे हैं। पिसि तौ खाली बूं ही रहौ है।'' गॉंव वाले भैया का पक्ष लेते हुए वे हम दोनों नौकरी वाले भाइयों की बुराई करते हुए बात की शुरूआत करतीं। उनकी इस बात से पत्नी खीज उठती-
            ''माताजी, हम कुछ बॉंटने जाते हैं क्या उनसे? खेती में जो भी पैदावार होती है,सब का उपभोग वही लोग करते हैं न। इनकी नौकरी लगने से आज तक कभी हमने अनाज का एक दाना भी लिया हो उनसे या जमीन में हिस्सा-बॉंट किया हो या कुछ और लिया हो, बता सकती हैं आप? या फिर ऐसा कोई उदाहरण बता सकती हैं जिसमें नौकरी करने वाला भाई, छह माह या एक साल बाद घर जा कर खेती-बाड़ी की पैदावार में से हिस्सा बॉंटकर न लाता हो? लेकिन एक आप हैं कि कुछ न बॉंटने पर भी हम को ही दबाये जाती हो।''
            'मैं काहे कूॅं दबाए जाऊं हॅूं, खूब नौकरी करि रहे हौं। बाद में जाय कें जमीन बॉंटि लेउगे अपनी-अपनी। पागल तौ बूं ही है ससुरौ।''- बिना किसी बात के ही शंका व्यक्त करने लगतीं मॉं तो पत्नी और खीज उठती-
            ''क्यों पागल हैं, हम क्या कुछ कह रहे हैं बॉंटने के बारे में?''
            'हॉं-हॉं बहॅूं रानी,सबु देखे हैं ना बॉटिंबे बारे।'-मॉं फिर भी आश्वस्त न होतीं।
            ''माताजी हमें कुछ नहीं चाहिए जेठजी से, न जमीन और न जायदाद। रिटायरमेंट के बाद कहीं भी पड े रहेंगे हम लोग, पर उनसे जमीन नहीे बॉंटेंगे।''-पत्नी उन्हें सन्तुष्ट करने का पूर्ण प्रयास करती।
            'अरे तुम नॉय बॉंटोगे तौं तुम्हारे बालक बॉंटि लिंगे।'-माताजी कई पीढि यों तक का पट्टा लिखा लेना चाहतीं, सुनकर मुझे बीच में बोलना पड ता-''अम्मा, आप कहो तो हम स्टाम्प पेपर पर लिख कर दे दें।''
            पर इतने स्पष्टीकरण के बावजूद वे जाने क्यों हर समय आशंकित सी रहतीं। इतना ही नहीं ,समुचित सेवा-सुश्रूषा के बावजूद उन्हें बहू-बच्चों में खोट नजर आता रहता। एक दिन ऊबकर पत्नी बोल ही पड ी-''पता नहीं माताजी आप किस मिट्टी की बनी हो, जहॉं भी रहती हो, सब की नाक में दम किए रहती हो, न तो स्वयं सुख-शान्ति से रहना चाहती हो और न दूसरों को ही रहने देती हो। जहॉं भी रहती हो कुछ दिन बाद ही वहॉं से जाने की रट लगाने लगती हो, जैसे बहू-बेटे बहुत बुरा सलूक कर रहे हों आपके साथ। जिसके भी पास रहती हो उसी की बुराई भी करती हो पड ोसियों से।''
            पत्नी की सत्यतापूर्ण बातों को मैं समझ रहा था फिर भी मॉं का पक्ष लेते हुए मैंने कहा-''लेकिन ऋचा, वृद्ध शरीर है इनका, बुढ ापे में तो अच्छे-अच्छे सठिया जाते हैं।''
            'मैं कब मना कर रही हॅूं, पर बुजुर्गों जैसी बात भी तो करनी चाहिए उनको। कल ही कह रही थीं- देखौं तुम्हारे जा  छोरा नें दस-पन्द्रह रूपिया तौ जा पतंगबाजी में ही खर्च करि दये। हमारे बु गॉंम बारे बालक हैं एक-एक पैसा कूॅं ऐसों जमा करैं हैं कैं बखत-जरूरत यौंही काम आय जाबैं हैं। और जे तुम्हारे लाड़िले हैं, बैसेई फँूकि रहे हैं पैसानु कूॅं।'
            अब आप ही बताओ, सालभर में एक पैसा भी खर्चते हैं ये बच्चे? अब स्कूल की छुटि्टयॉं हैं तो थोड ा-बहुत पतंग उड ा लेते हैं। बस वही बर्दाश्त नहीं हुआ इनसे। जब देखो तब 'गॉंम के बालक ऐसे है, गॉंम के बालक बैसे है। जैसे हमारे बच्चे तो चोर-उचक्के और पतंगबाज ही हों।''-बोलते-बोलते पत्नी का गला भर्रा गया तो मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए प्यार से थपथपाया-
            ''ऐसी बात नहीं है ऋचा,सब बुजुर्ग एक से ही होते हैं। जीवन भर का अनुभव होता है न उन्हें। उसी अनुभव के   आधार पर वे अपनी संतान को सही राह पर चलाना चाहते हैं। पर संतान होती है कि उसे अपना बुजुर्ग दकियानूसी, रूढि वादी और आउट ऑफ डेट....जाने क्या-क्या नजर आता है। पर बुजुर्ग का साया सिर से उठ जाने के बाद वह स्वयं जीवन की पथरीली राहों पर चलने लगता है तो पता चलता है कि हमारे दादा-दादी या माता-पिता कितना सच कहते थे। और फिर वे स्वयं अपने बच्चों पर उन अनुभवों को थोपना शुरू कर देते हैं, पर सचाई तो ये है ऋचा कि सीखते सब अपने-अपने अनुभवों से ही हैं और बस यही जीवन का क्र्रम जारी रहता है।''
            'भाषण देना तो कोई आपसे सीखे।'-अपने कंधे पर से मेरा हाथ हटाते हुए पत्नी रसोई घर में घुस गई फिर तुरन्त ही बाहर निकल आई-'अब देखिए न,माताजी की इन जली-कटी बातों के डर से मैंने अपने साड ी-ब्लाउज तक नहीं खरीदे अभी तक। तीन दिन बाद भाई की शादी में जाना है। अब कब खरीदारी होगी? कब ब्लाउज सिलेंगे और कब मैं जा पाऊंगी। कहीं ऐसा भी होता है कि दो दिन बाद भाई की शादी हो और हम यहॉं सब की तीमारदारी में लगे रहें।'- भरी ऑंखों से आखिर दो मोती ढुलक ही पड े सुन्दर कपोलों पर। देखकर मैं सहम गया। ऋचा का कहना झूठ न था। मैंने उस सांत्वना देने का प्रयास किया-
            ''चिन्ता न करो, ऋचा, सब कुछ एक दिन में ही तैयार करा दूॅंगा।''- कपोलों पर बन गई दो समान्तर रेखाओं को  रूमाल से पोंछते हुए मैंने पत्नी की ओर देखा तो वह मेरी आँखों में झॉंकने लगी। मैं समझ गया, कितनी मजबूर होकर कही है उसने ये बात। मॉं के स्वभाव को देखते हुए वह चुपचाप सब कुछ सहन कर रही है। यहॉं तक कि अपने भाई की शादी में पन्द्रह दिन पहले जाने की कह कर भी अभी तक नहीं गई हैं, कहीं खाने-पीने की असुविधा न हो सास जी को। एक-दो दिन में गॉंव जाने की कह ही रहीं हैं, उनके चले जाने के बाद ही खरीदारी आदि करके माँयके चली जायेगी वह। पर मेरे कहने पर जब अम्मा रुक गई तो पत्नी खीज उठी-''अच्छा मैं कल चली जाती हॅूं, आप रहो मॉं-बेटा, दोनों यहीं।''
            'अरे भई, एक-दो दिन में चली जायेंगीं, नहीं तो इतवार के दिन मैं बैठा आऊंगा गॉंव की बस में।'- मैंने कहा तो ऋचा भोले बच्चे की भॅांति मान गई।
            दो दिन बाद इतवार भी आ गया। मॉं के कहने के साथ ही मैंने उनसे रुकने का आग्रह नहीं किया और पहली बस के समय पर स्कूटर से जाकर उन्हें बस में बैठा आया था। घर वापस आते ही पत्नी ने प्रश्न दाग दिया-''सीधी बस मिल गई थी क्या?''
            सुनकर मैं चौंका। एक महीने से जिसके जाने की प्रतीक्षा में जो एक-एक दिन गिन रही थी वही पत्नी उनके जाने के बाद बड़ी चिन्ता के साथ उनकी सुविधाजनक यात्रा के बारे में पूछ रही है।
            ''तुम्हारी बला से, सीधी बस मिले या न मिले, तुम्हें क्या फर्क पड ता है। मैं तो बैठा ही आया अब। चली जायेंगी कैसे भी।''- कुढ ते हुए मैंने कहा तो पत्नी नाराज हो उठी- 'ऐसे कैसे बैठा आये आप? बुजुर्ग हैं कहीं बस बगैरा बदलने के चक्कर में गिर-गिरा पड ीं तो? उन्हें सीधी बस में ही ठीक तरह से बैठा कर आना चाहिए था।'
            पत्नी के चिन्तातुर चेहरे को देखकर मुझे हॅंसी आ  गई-''ठीक है बाबा, सीधी बस में ही बैठाकर आया हॅूं। आराम से सीट भी मिल गई थी। गॉंव जाकर ही उतरेंगीं अब। तब तो रोजाना यही सोचती रहती थीं कि बुढ़िया कैसे भी जाने का नाम ले... और अब इतनी चिन्तातुर हो कि....''
            'नहीं ऐसी बात नहीं है। कच्ची मँुडेर को बर्षा से बचाने के लिए जैसे छप्पर की आवश्यकता होती है, वैसे ही घर की इज्जत के लिए बुजुर्ग का होना जरूरी होता है।'
            पत्नी की बात सुनकर मैं सोचने लगा- फिर कौन सी दीवार है जो सास-बहॅूं को एक नहीं होने देती? तभी वर्षो पहले एक भिखारी की गाई कुछ पंक्तियॉं मेरे जेहन में दोलन करने लगीं। जब भी वह भिखारी दरवाजे पर अलख जगाता, पिताजी उसे घर के अन्दर बुला लिया करते थे और फिर उससे कई-कई गीत सुनते। वह भी तन्मय होकर सुनाने लगता। एक गीत जिसे वह अक्सर ही सुनाता,शायद जीवन का सार  था उस गीत में-
                        या काया में अमृत कूप भरे
                        या ही में तो अग्नि जलत है
                        या ही में बाग हरे।
                        या काया में.................




                    कहानी-                 धुंध के पार         डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

कई दिन की यात्रा के बाद, थकी-हारी निशा ने अपने शहर के स्टेशन पर कदम रखा तो चाय-पकौड़े और अन्य सामग्री बेचने वालों के शोर के बीच वह अपने पति की आवाज सुनने को बेताव, इधर-उधर नजर दौड ाने लगी। आज पहली बार उसे अहसास हुआ कि उसके जीवन में उसके पति का कितना बड ा योगदान रहा है। जिन बातों को वह आज तक सिरे से नकारती रही है वही बातें आज उसको रह-रह कर याद आने लगीं। उसे एक पल को भी प्लेटफार्म पर रुकना असह्य लगने लगा।
            'उफ क्या जीवन है', अनायास ही उसका मुॅंह कसैला हो उठा। उस कार्यक्रम के स्मरण मात्र से ही वह सिहर उठी। अपने जन्म-स्थान से कवि-सम्मेलन का आमंत्रण-पत्र पाकर वह उल्लसित हो उठी थी। उसने अपना रिजर्वेशन करा लिया था जिसके पीछे मात्र जन्म-भूमि का ही लोभ नहीं था,बल्कि वह तो वहॉं जाकर अपार भीड  के समक्ष राकेश को यह दिखाना चाहती थी कि वह लड की जिसने कभी राकेश से प्रणय याचना की थी, कितनी प्रतिष्ठित कवयित्री हो गई है। राकेश ने तो उसे एक मामूली लड की समझ कर ही उसकी अवहेलना की थी।
            निशा और राकेश के घरों में ज्यादा दूरी नहीं थी। दोनों परिवारों में घनिष्ठ मित्रता थी। शायद ही कोई दिन बीतता हो जब वे आपस में न मिलते हों। अपने चुलबुले स्वभाव के कारण ही निशा , राकेश के साथ अक्सर ही उछल-कूद मचाती रहती। बातों ही बातों में एक दिन राकेश की मॉं परिहास कर उठी-''देखो बहन, तुम्हारी लड की तो मेरे लड के पर अभी से हावी हो रही है, बड ी होकर तो उसे पिंजड े में डाल देगी। मैं नहीं करूॅंगी तुम्हारी लड की से अपने बेटे की शादी, हॉं।''
            'पछताओगी बहन जो मेरी बेटी को अपनी बहू बनाने से मना करोगी। देख लो दीपक लेकर ढूढ ने से भी नहीं मिलेगी ऐसी बहू।'-निशा की मॉं ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा था। दोनों की बातचीत को चुपके से सुन, चन्द्रमा की कलाओं-सी तेजी से बढ़ती जा रही निशा , मन ही मन प्रमुदित हो उठती और राकेश की ओर चोरी-छुपे ऐसी नजरों से देखती जैसे वह इस समय भी उसका पति ही हो। अनजाने में की गई हॅंसी-मजाक का परिणाम ये हुआ कि निशा के बालमन पर राकेश विराजमान हो गया। दोनों परिवारों की बातचीत और चर्चाओं से उसका विश्वास अटल होता गया कि राकेश ही उसका भावी पति होगा। समय, पर लगाकर फुर्र-फुर्र उड ता रहा और अब निशा शादी-ब्याह का मतलब समझने लगी थी अतः जब भी राकेश उसके घर आता,वह उसके सामने आने में लजाने लगती। पर चोरी-छुपे कभी-कभी दरवाजे की ओट से तो कभी पर्दे के पीछे से जब तक वह राकेश के चेहरे को निहार न लेती, उसे चैन न पड ता।
            जीवन में सब कुछ वैसा ही नहीं होता जैसा मनुष्य चाहता है। अचानक ही एक दिन निशा के पिता का स्थानान्तरण एक दूसरे शहर में हो गया। कई वर्ष बाद जब निशा के पिता अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव लेकर राकेश के पिता के पास गये तो उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि बीते हुए बर्षों में राकेश के घर-परिवार और विचारों में काफी परिवर्तन हो चुका है। राकेश के पिता ने मुस्कराते हुए कहा कि राकेश ने अपनी कक्षा की ही एक लड की पसंद कर ली है। अब आप तो जानते ही हैं कि जब बेटे के पॉंव में पिता का जूता आने लगे तो बुद्धिमानी इसी में है कि पुत्र के साथ मित्रवत व्यवहार किया जाय।
            राकेश के पिता की ये दलील सुन  निशा के पिता चकित रह गये। अपनी घनिष्ठ मित्रता का वास्ता भी जब कुछ न कर सका तो वे चुपचाप वापस चले आये। अपने पिता से सारा हाल जानकर निशा के दिल को एक धक्का-सा लगा। वह तो पूरी तरह अपने मन में राकेश को ही अपना पति मान चुकी थी।
            कौन दोषी था इस सब के लिए, निशा या उसके माता-पिता, जिन्होंने निशा के सामने ही विवाह की बातें कर करके उसके भोले बालमन पर अनजाने में ही राकेश की छवि अंकित कर दी थी।
            भारतीय ललना की भॉंति ही  वह माता-पिता की इच्छा से राजेन्द्र के साथ विवाह रचाकर हजारों किलोमीटर दूर , अपनी ससुराल चली आई पर शुरू से ही मन पर छाई राकेश की अमिट छवि को प्रयासों के बावजूद वह मिटा न सकी। वह कदम-कदम पर राकेश की प्रत्येक आदत की तुलना राजेन्द्र के साथ करने लगती और फिर उसे अपनी कल्पना  के विपरीत पाकर वह राजेन्द्र से विमुख हो उठती। धीरे-धीरे राजेन्द्र के प्रति वह चिढ़चिढ ाने लगी। राजेन्द्र का प्रेम-प्रदर्शन भी उसे कृत्रिम-सा लगता। वह अनायास ही राजेन्द्र को डॉंट बैठती। निशा ने अपने दिल में झॉंककर देखा पर वह किसी भी सूरत में राकेश की छवि को अपने मानस-पटल से हटा न सकी। दाम्पत्य के असन्तुलन और मन की पीड ा ने उसे कवयित्री बना दिया। एक ऐसी कवयित्री जिसके अवचेतन में  राकेश से बंचना का दर्द समाहित था। अपने मन की पीड ा को कविता में पिरोकर ,जनसमूह के समक्ष उड ेलकर उसे आत्म-संतुष्टि होने लगी। स्थानीय गोष्ठियों की सीढ ी पार करते हुए वह बड ी मंचों तक जा पहॅुंची।  इस सब में राजेन्द्र का पूरा सहयोग उसे मिलता। निशा जब भी और जहॉं भी चलने को कहती, राजेन्द्र उसी समय उसे वहॉं पहुॅंचाकर आता। पति की इन सहयोगी भावनाओं का निशा को अहसास न हो, ऐसी बात नहीं पर वह तो जान-बूझ कर उसकी अवहेलना करती रहती।
            कलकत्ता के लिए राजधानी एक्सप्रेस के स्लीपिंग कम्पार्टमेंट में बैठाते हुए राजेन्द्र ने कहा था-''निशा तुम कहो तो मैं अब भी तुम्हारे साथ चल सकता हॅूं। तुम इतनी दूर अकेली कैसे जाओगी?''
            'रहने दो । सब पुरुषों की सोच एक जैसी ही होती है। तुम लोग समझते हो कि तुम्हारे बिना स्त्री अपाहिज है जो एक कदम भी घर के बाहर नहीं निकल पायेगी। अरे आज स्त्री किस क्षेत्र में पुरुष से पीछे है? एवरेस्ट पर वह पहुॅंच गई। रेलगाड ी वह ड्राइव कर रही है। वायुयान वह उड ा रही है और तो और स्त्री आज अंतरिक्ष पर भी जा पहुॅंची है और तुम हो कि मात्र कलकत्ता तक मुझे अकेला भेजने में घबरा  रहे हो।'
            कलकत्ता पहुॅंचकर गाड़ी से उतरने के साथ ही निशा को स्टेशन बिल्डिंग की दीवारों पर जगह-जगह चिपके अनेक पोस्टर दिख गये जिनमें अपने फोटो और नाम को पढ कर वह प्रमुदित हो उठी। उसके पॉंव जमीन पर नहीं पड  रहे थे। नाम के साथ फोटो भी देखकर राकेश ने उसे पहचान तो लिया ही होगा। सम्भव है मंच पर देखते ही उसके पास भागा चला आये और प्रसंशा की झड ी लगाते हुए अपनी भूल को स्वीकार करे-''अरे निशा, तुम इतनी प्रतिष्ठित कवयित्री हो जाओगी,मैंने तो सोचा भी नहीं था। तुम्हें याद है न निशा,तुम कभी राकेश को चाहती थी। आज मुझे अपनी भूल का अहसास हो रहा है। काश! मैं तुम्हारे प्रणय को न ठुकराता।''
            और तब वह राकेश को अपमानित करेगी। कहेगी-'कौन राकेश? मैं किसी राकेश को नहीं जानती।' तब वह उसे स्मरण कराने का हर सम्भव प्रयास करेगा। सोचते-सोचते वह संयोजक द्वारा भेजे गये आदमियों के साथ उनकी गाड ी में बैठकर आयोजन स्थल पर पहॅुंच गई जहॉं उसके ठहरने का भी प्रबन्ध किया गया था।
            प्याजी रंग के परिधानों में लिपटी वह ,मंच पर पहुॅंची तो सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा था जिसे देख वह गर्व से तन गई। पर उसकी कल्पना के विपरीत जब काफी देर तक भी राकेश मंच पर नहीं आया तो उसकी नजर श्रोताओं की भीड  में राकेश को खोजने लगी। यहॉं तक कि कवि सम्मेलन का आखिरी दौर तक समाप्त हो गया। निशा की कविताओं को हजारों श्रोताओं ने सराहा पर उन हजारों-हजार श्रोताओं में उसे वह नहीं दिखा जिसे दिखाने के लिए ही  विशेषकर वह यहॉं आई थी। वह निराश, वापस अपने ठहरने के निर्धारित स्थान पर आ गई। कमरा बन्द कर वह अपने परिधान बदलने ही जा रही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई।
            ''कहिए?''-चैन-लॉक डालने के बाद, आधे खुले दरवाजे से बाहर झॉंकते हुए निशा बोली।
            'जी वो कवि-सम्मेलन के संयोजक, सरस जी आपसे मिलने के इच्छुक हैं। अचानक अस्वस्थ हो जाने के कारण वे कार्यक्रम में नहीं पहॅुंच सके थे।'-निशा ने पहचाना यही आदमी उसे स्टेशन पर रिसीव करने गया था।
            ''कहॉं हैं सरस जी?'-निशा ने संयोजक के बारे में पूछा।
            ''यहीं हैं, इसी होटल में। आइये मैं आपको पहॅुंचा दूॅं।''
            संयोजक के  कमरे में पहुॅंचाने के बाद वह व्यक्ति चला गया।-''आइये निशा जी। दरअसल थोड़ी अस्वस्थता के कारण मैं मंच पर जाकर आपकी कविताओं का रसास्वादन न कर सका, इसीलिए आपको यहॉं कष्ट दिया।''
            निशा ने गौर किया, थुल-थुल से शरीर पर कुर्ता-पाजामा धारण किए, प्रौढ  से दिखने वाले उन महोदय में अस्वस्थता के लक्षण दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे थे पर उनके चेहरे की झलक ने किसी परिचित व्यक्ति जैसा भान कराया तो निशा ने पूछ ही लिया-''आपका मूल नाम क्या है सरस जी?क्षमा करें मुझे आपके चेहरे से कुछ जानी-पहचानीसी..''
            'ठीक ही कहा आपने, मेरा मूल नाम राकेश है। नहीं पहचान पाई न? जबकि मैंने तो देखते ही पहचान लिया था तुम्हें।'-कमरे में इधर-उधर देखते हुए राकेश ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा तो वह पहचान गई। राकेश को इस रूप में देखने की तो कल्पना भी न की थी उसने। न वह पहले वाला आकर्षक व्यक्तित्व, न सुन्दरता और न वाणी में सौम्यता ही। राकेश के मुॅंह से मद्यपान की गंध आ रही थी और उसकी ऑंखों के लाल डोरे निशा के दिल में दहशत पैदा कर रहे थे। राकेश के इस रूप को देखने के बाद निशा के लिए अब एक पल भी उसके सामने बैठना असह्य हो रहा था।
            ''अच्छा राकेश, कल बात करेंगे।''-कहकर वह अपने कमरे में जाने को हुई तो राकेश ने उसका हाथ पकड  लिया।
            'अरे बैठो भी, कहॉं तो तब सारी उम्र के लिए अपनाना चाहती थी और अब....'
            वह क्रोध से तिलमिला उठी। एक झटके के साथ अपना हाथ छुड ाते हुए उसने राकेश के गाल पर चट्टाक से चांटा जड  दिया-'' मैं तुम्हें ऐसा न समझती थी राकेश। आज तुमने मेरे मन-मंदिर में बसी अपनी ही मूर्ति को खण्डित कर दिया है।'' कहते हुए निशा अपने कमरे में दौड  पड ी। ''अरे जा बहुत देखी हैं तेरे जैसी जो पैसे पर जान छिड़कती हैं।''-आते-आते भी कहा गया राकेश का वाक्य निशा को आहत कर गया,लगा जैसे किसी ने उसके कानों में पिघलता हुआ सीसा भर दिया हो। वह तुरन्त ही रेलवे स्टेशन आई और दिल्ली की ओर जा रही पहली गाड ी में             बैठ गईं।
            कलकत्ता को जाते समय मन की उमंग ने लम्बी दूरी का अहसास ही नहीं होने दिया था किन्तु अब वही दूरी बहुत ज्यादा लगने लगी। रह-रह कर उसे अपने दाम्पत्य के वे क्षण याद आने लगे जिन्हें उसने राकेश की स्मृति के हवाले कर, नष्ट कर दिया था। आज वर्षों बाद अपने पति राजेन्द्र का  कदम-कदम पर किया गया सहयोग उसे याद आने लगा। कोई भी पल तो ऐसा नहीं जब राजेन्द्र ने उसकी भावनाओं का विरोध किया हो। और वह एक ऐसे मनुष्य के प्रेम में अपने दाम्पत्य को अब तक नष्ट करती रही जो मनुष्य रहा ही नहीं।
            अटैची हाथ में उठाकर वह चलने ही वाली थी कि सामने से राजेन्द्र आता हुआ दिखाई दिया। अपने पति को आता देख वह अपनी सुध-बुध खो बैठी जैसे युगों-युगों से बिछुड े अपने प्रिय को देख रही हो। उसके सतृष्ण नेत्रों से दो बूंद झलकीं और दो समानान्तर रेखाएं बनाते हुए, सभी भूलों का प्रायश्चित्त कर गई।


                 
                 कहानी-                  आस्था और आत्मबल        डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

जून माह की भीषण गर्मी अपनी पराकाष्ठा पर थी। रविवार का दिन था अतः दोपहर का भोजन करने के बाद मैं अधलेटा सा समाचार पत्रों के साप्ताहिक परिशिष्टों को उलट-पलट रहा था। अचानक दरवाजे पर गाड़ी रुकने की  और फिर गाडका दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही कुछ जानी-पहचानी सी किसी व्यक्ति की आवाज ने मुझे अपनी ओर आकृष्ट किया।
            मैं अनुमान लगा ही रहा था कि इस भीषण गर्मी में  किसके यहॉं कौन आया होगा कि अचानक अपने ही मकान की कॉलबैल बजने की आवाज सुनकर मैं चौंक उठा। मैंने   इधर-उधर फैले पडसारे समाचार-पत्रों को जल्दी-जल्दी सही तरीके से फोल्ड किया और मेज पर फैली पुस्तकों, पत्रिकाओं को व्यवस्थित करते हुए  तथा समाचार-पत्रों को भी मेज पर रखते हुए उनके ऊपर पेपरवेट रख दिया फिर हैंगर पर टंगी अपनी शर्ट को उतार कर उसमें जल्दी-जल्दी अपनी बाहें घुसाते हुए बटन बन्द करने लगा।
            ये सारे कार्य मैंने बहुत ही तेजी के साथ किए थे क्योंकि बाहर की चिलचिलाती धूप में खडहोकर कॉलबैल बजाते व्यक्ति को मेरे द्वारा देरी करने पर तकलीफ होगी इस बात का एहसास मुझे पूरी तरह से था। 
            कालबैल बजाने वाले व्यक्ति की कल्पना में इतनी सी देर में मेरे मस्तिष्क में अनेक चेहरों के अक्स उभर कर लुप्त हो चुके थे। जैसे ही मैंने दरवाजा खोला कि सामने खडव्यक्ति को देख कर मैं चौंक उठा। मस्तिष्क पर थोडसा जोर डालते ही मैं उस आगन्तुक को पहचान गया था। यद्यपि उसके इस समय के अद्वितीय सुदर्शन रूप और शान--शौकत को देखते हुए उसे पहचान पाना इतना आसान नहीं था, पर चेहरे की एक विशेष झलक तथा उसके बातचीत करने के अन्दाज से ही मैंने उसे पहचान लिया था तथा उसे ये लेशमात्र भी एहसास नहीे होने दिया था कि उसे पहचानने में मुझे अपने स्मृति-पटल को खखोरना पडहै। उसके पीछे-पीछे ही उसकी पत्नी भी आकर सोफे पर बैठ चुकी थी। ड्राइवर गाड़ी में से अटैची उतार कर ड्राइं्रग रूम में रखकर वापस गाड ी में जाकर बैठ चुका था।
            ''आपने पहचान लिया मुझे, भाईसाहब?''- नवयुवक ने हुमस कर प्रसन्नता से पूछा तो मैंने भी उसी मुद्रा में उत्तर दिया-'क्यों , पहचानता क्यों नहीं? अरे भाई, तुम्हें भी कोई भुला सकता है क्या?' कहने के साथ ही मैं कई वर्ष पीछे खिसक गया।
            कमलानगर में मेरे मकान से लगभग चार-पॉंच मकान छोड कर ही मेरे एक मित्र राजेश रहा करते थे। उनके साथ मेरे पारिवारिक सम्बन्ध थे। कोई भी सप्ताह ऐसा नहीं होता था जब कि दो-चार दिन उनका परिवार मेरे यहॉं या मेरा परिवार उनके यहॉं न आता-जाता हो। घन्टों बैठकर उनके साथ् बातचीत होती। कभी साहित्य की विभिन्न विधाओं में हो रहे नित नये प्रयोगों पर तो कभी प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं पर, तो कभी राजनीतिक सन्दर्भों पर।
            उसी दौरान राजेश ने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि का परिचय देते हुए अपने छोटे भाई सुरेश के बारे में भी बताया था। राजेश ने बताया कि सुरेश ने विज्ञान से स्नातकोत्तर करने के बाद एल०एल०बी० भी कर ली है किन्तु उसे अभी तक कोई नौकरी नहीं मिल पाई है। लगभग परिवार का प्रत्येक सदस्य ही ये बात उसे समझा चुका है कि यदि मजिस्ट्रेट की परीक्षा में पास नहीं हो पा रहे तो फिर कोर्ट-कचहरी में अपनी वकालत ही शुरू कर दो, ऐसे कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे। कम से कम अपने पेट लायक तो कमा ही लाया करोगे। पर सुरेश है कि एक ही जिद पर अड ा हुआ है कि बनेगा तो मजिस्ट्रेट ही ,नहीं तो कुछ नहीं करेगा।
            सुरेश की इस हठधर्मी से सारा घर दुःखी है। राजेश की बात सुनकर और सुरेश की उम्र तथा दी गई परीक्षाओं के परिणामों का आंकलन करते हुए मुझे भी लगता कि राजेश जो कह रहा है उसकी बात अपनी जगह सही है।आखिर इस उम्र तक घर वालों ने सुरेश के खाने-पीने और पढ ाइ-लिखाई पर खर्च किया है और अब जब कुछ कमाने का समय आया है तो सुरेश कामों को छोटे-बड े दर्जे में विभक्त करके जिम्मेदारियों से पलायन करना चाहता है। क्यों नहीं वह वकालत करते हुए ही अपने उज्ज्वल भविष्य का प्रयास करता।
            राजेश ने बताया कि सुरेश आगरा आ रहा है अतः मुलाकात होने पर मैं भी उसे समझाने का प्रयास करूॅं। सुनकर सुरेश से मिलने की मेरी इच्छा प्रबल हो उठी।
            सुरेश से मुलाकात कर अच्छा लगा था। गोल चेहरा, उन्नत ललाट और ऑंखों में गम्भीरता का भाव, सुरेश की ओर बरवस ही ध्यान आकर्षित कर लेता था। बातचीत के दौरान मैंने सुरेश को अपने यहॉं आने को आमंत्रित किया जिसे उसने सहज ही स्वीकार कर लिया।
            ड्राइंग रूम में आकर बैठते ही सुरेश ने एक सरसरी नजर से पूरे कमरे का निरीक्षण किया। फिर सामने की दीवार में बने पूजास्थल की मूर्तियों और तस्वीरों पर सुरेश की नजर ठहर गई-
            ''भाईसाहब, आपके ड्राइंग-रूम और पूजा-स्थल में रखी मूर्तियों और तस्वीरों को देखने से तो ऐसा अनुमान हो रहा है कि आप ईश्वर में बहुत आस्था रखते हैं।''-सुरेश ने मेरी ओर सीधे-सीधे प्रश्न किया।
            'नहीं होनी चाहिए क्या?'-उत्तर देने की बजाय मैंने उल्टा प्रश्न दागा।                                                                                                                                                          ''नहीं एसी बात नहीं है। ''-सुरेश ने एक लम्बी सांस ली और अपनी बात जारी रखी-''दरअसल कभी मेरी भी बहुत आस्था थी, परन्तु परिस्थितियोंवश आस्था डगमगाने लगी है।''
            'ऐसा क्यों?'-सुरेश की ओर देखते हुए मैंने प्रश्न उछाला।
            ''भाई साहब और भाभीजी ने शायद मेरे बारे में आपको बहुत कुछ बता दिया होगा?''-कहते हुए सुरेश ने अपनी नजरें झुका लीं।
            ''बहुत कुछ तो नहीं, हॉं तुम्हारे उच्च शिक्षित होने के बावजूद अभी तक कोई नौकरी न मिल पाने के बारे में थोड़ा बहुत जरूर बताया है।''
            'कोई-सी भी नौकरी नहीं भाई साहब, मुझे केवल  न्यायाधीश बनना है, बस।'-सुरेश की दृढ़ता से तो मैं भी एकबारगी ऊपर से नीचे तक देखने लगा। मेरे वाक्य ने शायद उसके स्वाभिमान को चोट पहुॅंचा दी थी। उसकी ऑंखें कहीं दूर किसी स्वप्न-लोक में विचरण करने लगीं थीं। उसने कहना जारी रखा-''किन्तु घर वाले चाहते हैं कि मैं छोटी-मोटी कोई नौकरी कर लूॅं या फिर वकालत ही शुरू कर दॅूं।''
            'तो क्या सभी लोग न्यायाधीश बनकर ही अपनी आजीविका चला रहे हैं संसार में, या फिर न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य नौकरी वाले सभी बौने हैं?''-राजेश द्वारा बताई गई बातों के आधार पर मैंने सुरेश का प्रतिवाद किया।
            ''आप गलत समझ रहे हैं भाईसाहब। मैं किसी भी नौकरी को छोटी-बड ी नहीं मानता। मेरी इस हठधर्मी या लक्ष्य के पीछे मेरे बचपन की एक घटना छुपी हुई है जिसे मैं भुलाए नहीं भूलता।''-कहते हुए सुरेश ने मेरी ओर देखा।-''आप सुनना चाहेंगे उसे ,भाई साहब?''
            मेरी स्वीकृति मिलते ही सुरेश ने बताया कि ईर्ष्यावश उसके पड ोसियों ने एक दंगा-फसाद में उसके पिताजी का नाम लिखा दिया था। जब कि दंगा वाले दिन पिताजी गॉंव में नहीं थे। विपक्षी दल इतना सामर्थ्यवान था कि उसने न्यायाधीश को रिश्वत देकर मेरे पिता जी को जेल करा दी थी। निर्दोष पिताजी का वह असहाय और निरीह चेहरा मेरे समक्ष आज भी उपस्थित रहता है।''-कहते हुए सुरेश शून्य में निहारने लगा था-''इसीलिए मैं दृढ  प्रतिज्ञ हॅूं कि मैं एक ऐसा न्यायाधीश बनूॅंगा जो रिश्वत लेकर किसी गरीब के विपक्ष में फैसला न सुनाए। असहाय और निरीह प्राणियों को सच्चा न्याय दिलाने के लिए ही मैं न्यायाधीश बनना चाहता हॅूं।''
            सुरेश का शिव-संकल्प सुनकर मैं हतप्रभ था-'इतने सुन्दर लच्य को लेकर चल रहे हो फिर ये अनास्था वाली बात कहॉं से आई?' -सुरेश की ओर मुस्कराते हुए मैंने पूछा।
            ''दरअसल मेरे इस लक्ष्य में निरन्तर मिल रही असफलताओं ने मुझे हिला दिया है। अब बस, एक अवसर और बचा है। इस बार भी यदि.....।''-कहते-कहते सुरेश की ऑंखें डबडबा आईं तो मैंने उसके कंधे पर अपना हाथ रख  दिया।
            ''कभी गोवर्धन महाराज की परिक्रमा की है सुरेश?''
            'नहीं तो।'-अचानक मेरे द्वारा विषयान्तर कर दिए जाने से वह मुझे ऊपर से नीचे तक देखने लगा।
            ''लक्ष्य प्राप्ति की दृढ़ता परखने के लिए ही ईश्वर भक्त की परीक्षा लेता है। अब ये तुम्हारा अंतिम अवसर होगा, है न?''
            उत्तर की बजाय सुरेश ने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिला दी।
            ''पता है, मुंबई से आगरा तुम्हें किसलिए बुलाया है इसने?''-मैंने सामने टंगी कृष्ण भगवान की सुन्दर तस्वीर की ओर इशारा किया।
            सुरेश मेरे मुॅंह की ओर ताकने लगा।
            ''अब पूर्ण आहुति का समय आ गया है। इसलिए राजेश के बहाने तुम इतनी दूर से यहॉं आये हो। चार दिन बाद अधिक मास प्रारम्भ हो रहा है। तुम्हें गोवर्धन महाराज की परिक्रमा देनी है। समझे?''
            सुनकर सुरेश ने सम्मोहन जैसी अवस्था में अपने दोनों हाथ जोड  दिये, जैसे मैं कोई साधु-संत होऊं, जिसने  बहुत अच्छा प्रवचन दिया हो।
            अब  अक्सर ही सुरेश का मेरे पास आना होता। मैं ये देखकर आश्चर्य चकित था कि अधिकमास में उसने एक दो दिन के अन्तर से पूरी सात परिक्रमा दीं और प्रत्येक परिक्रमा के बाद उसके चेहरे पर लक्ष्य प्राप्ति के दृढ  भाव परिलक्षित होने लगे थे।
            बाद में राजेश के द्वारा ज्ञात हुआ था कि सुरेश ने इस बार अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है और प्रशिक्षण हेतु गया हुआ है। सुनकर मेरा हृदय प्रसन्नता से खिल उठा था और स्वतः ही मेरे दोनों हाथ सामने दीवार पर टंगी श्रीकृष्ण की मुस्कराती तस्वीर के आगे जुड  गये थे।
            ''भाई साहब, आपने उस समय मेरे विश्वास को सम्बल प्रदान न किया होता तो मैं डगमगा ही जाता। मैं आपका आजीवन आभारी रहूॅंगा।''-सुरेश के वाक्य ने मेरी तंद्रा भंग की तो विगत से निकल कर मैं वर्तमान में आ गया।
            ''ये तुम्हारा बड़प्पन है सुरेश, जो ऐसा कह रहे हो। वैसे हकीकत ये है कि वह तुम्हारा आत्म बल ही था जिसने तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य तक पहुँचाया। हॉं आस्था ने उसमें दृढ ता पैदा की। उसी आस्था ने , जो किसी भी मंदिर में रखे पत्थरों को ईश्वर में बदल देती है। यही सत्य है। किन्तु याद रखना, अपने उद्देश्य को मत भूलना। असहाय और निरीह प्राणियों के प्रति, कभी अन्याय न होने पाये।''
            'आप निश्चिंत रहें ,भाईसाहब, ऐसा ही होगा।'
             न्यायाधीश सुरेश को अपने सामने देखकर मेरा हृदय अभिभूत था। पत्नी इस बीच ठंडा पानी और कुछ मिष्ठान लाकर मेज पर रख चुकी थी।-''लीजिए सुरेश भैया, अपने न्यायाधीश बनने की खुशी में मुॅंह मीठा कीजिए।''-कहते हुए पत्नी ने मिठाई की प्लेट सुरेश की बहू की ओर बढ ा दी।



           कहानी-                  नीलकंठ की भाँति             डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’
                    लौटते-लौटते आज फिर रात के ग्यारह बज गये थे। अन्य दिनों की भाँति ही पत्नी आज भी दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। उसको आता  देखकर वह अन्दर चली गई। अन्दर पहुंॅचकर उसने पत्नी की ओर निहारा। पत्नी के मौन, उदास चेहरे को देखकर वह फिर अपराध बोध से भर उठा और फिर कभी भविष्य में इतने विलम्ब से न लौटने की कह कर पत्नी को मनाने का प्रयत्न करने लगा।
पत्नी ने उसकी बात सुनी और एक निरीह, अविश्वासी नज र से देखने लगी जैसे कह रही हो कि ऐसा तो तुम प्रतिदिन ही कहते हो, पर इस पर अमल कब करोगे?
पत्नी की दृष्टि से दृष्टि मिला पाना आज उसे मुश्किल लगा। पता नहीं क्या हो जाता है उसे। प्रतिदिन ही रात देर से घर लौटने पर वह पत्नी से अगले दिन शीघ्र लौट आने या उधर की तरफ न जाने का वायदा करता है और फिर सुबह होते-होते, रात की सारी बातें और पत्नी के साथ किए गये सारे वायदे भूलकर फिर-फिर मन शिरीन के जाल में उलझ जाता है। जागते ही शिरीन का चेहरा आँखों के आगे घूमने लगता है। बाथरूम में स्नान करते-करते शिरीन की कविताओं और गीतों की पंक्तियाँ वह गुनगुनाने लगता है और अपने कार्य पर पहुँचकर भी, वहाँ से जल्दी से जल्दी लौटकर शिरीन के यहाँ पहुँच जाने का प्रयास करता रहता है या यूँ कहें कि अपने कार्यक्षेत्र  से अधिक उसे शिरीन के समीपस्थ होने का ध्यान रहने लगा है। वह स्वयं नहीं समझ पाता कि आखिर ऐसा क्यों होता है। क्यों वह अपनी अनुपम सौन्दर्य मयी पत्नी के रहते हुए भी शिरीन के पास जाने को आतुर रहता है।
शायद शिरीन की आकर्षक, मनोहारी बातें? या फिर शिरीन की व्यक्तिगत पीड ाएं जिनके लिए वह कुछ-कुछ स्वयं को भी दोषी मानने लगा है अब, उसे शिरीन की निकटता हेतु आकर्षित करती है। पर उस निकटता में, कहीं भी मर्यादा से परे या कहें कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों जैसी तो कोई बात नहीं होती। फिर.....
इस फिर का उत्तर उसे कभी नहीं मिल पाया। उसके मन और बुद्धि में अन्तर्द्वन्द्व छिड़ जाता। सारे दिन अन्य कार्यों को करते हुए भी निरन्तर शिरीन का ही चिंतन, उससे शीघ्र मिलने की आतुरता और मिलने पर निरन्तर शिरीन के वाग्जाल में उलझे-उलझे देर रात को घर पहुँचना। जानते-बूझते हुए भी कि इससे पत्नी के मर्म को कितनी पीड ा पहुँचती है।
लेकिन क्या है जो उसे मजबूर कर देता है फिर-फिर शिरीन से मिलने को? क्या शिरीन के प्रति दया-भाव या उसका निश्छल व्यवहार जो वह उसके साथ करती हैं।
नदी के किनारे-किनारे पुष्पित-पल्लवित लता वृक्षों के बीच घूमते हुए शिरीन ने अचानक ही उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था-
''तुम्हें नहीं लगता शुभम् कि हम दोनों किसी जन्म में एक-दूसरे के रहे होंगे और इस जन्म में मेरे किसी पापकर्म के कारण ईश्वर ने तुमसे अलग कर दिया है। मुझे दण्डित करने के लिए।''
'पता नहीं शिरीन, ये तो मैं नहीं कह सकता पर इतना जरूर है कि एक परम शक्ति है जो सारे जगत का संचालन करती है। उसके यहाँ हर चीज का लेखा-जोखा है, एक-एक पल का। कर्मानुसार वह प्रत्येक प्राणी के जीवन का निर्धारण करती है।'
''हाँ, यही तो मैं भी कह रही हूँ शुभम्। तभी तो देर से ही सही उस परम शक्ति ने आखिर मुझे मिला ही दिया तुमसे। मेरे दुःखों में न्यूनता लाने के लिए।'
'हाँ, ठीक कह रही हो शिरीन। हो सकता है, मुझे इसका श्रेय देने के लिए ऐसा किया हो परम सत्ता ने, पर मूल उद्देश्य है तुम्हारे दुःखों का निवारण और इसीलिए मैं बार-बार तुमसे कहता हूँ कि अपने आप में सुख खोजने का प्रयास करो। जो नहीं मिला या जो बीत गया उसके लिए आजीवन रोते रहने से अच्छा है कि वर्तमान में जो तुम्हारे पास है इसी में प्रसन्नता का श्रोत खोजो। हमारे कार्यों से कहीं हमारा आज भी नष्ट न हो जाय। अपने घर, पुत्र और अपने पति के सान्निध्य में जिस दिन तुम्हें अच्छा लगन लगेगा, समझो वहीं परम सुख का दिन है। मृगतृष्णा में भटकने से कुछ हासिल नहीं होता शिरीन।'
मेरी बात सुन, शिरीन ने मेरे चेहरे की ओर देखा। मौन दृगों की कोरें भीग उठीं थीं-
''फिर वही गीता-सा उपदेश! शुभम्, तुम मेरी पीड़ा को कब समझोगे? मैं जब भी कोई बात करती हूँ तुम उसका रुख एक ही ओर मोड  देते हो। शुभम्, तुम जिसे मेरा सुख सिद्ध करना चाहते हो वह सुख नहीं है। मैं सुखी नहीं मान सकती अपने आप को और न मैं वह सब कर सकती हूँ जिसका कि तुम मुझे उपदेश देने लगते हो। नहीं शुभम् नहीं। गत वर्षों में मैं वही सब तो करके देखती रही हूँ जो तुम मुझसे करवाना चाहते हो। तुम मेरे पति में देवत्व की तलाश मत करो शुभम्। वह पतित है। उसका सान्निध्य मुझे सुख प्रदान नहीं कर सकता, नहीं कर सकता।
''नहीं शिरीन, प्रेम से आदमी बड े-बड े असम्भव कार्य सम्भव कर लेता है। वो तो तुम्हारे पति हैं, तुम्हारी बात नहीं मानेंगे? बस एक बार, जैसे मैं कहता हूँ, करके तो देखो शिरीन।''
'ठीक है, तुम्हें मेरी सारी तकलीफें जानते हुए भी वही सब कराने में सुख मिलता है तो मैं करूँगी। तुम्हारे कहने पर.......।'' कहते हुए शिरीन का गला रुँध गया।
'मेरी अच्छी शिरीन......' शिरीन का दाहिना हाथ अपने बाँये हाथ के ऊपर रखकर अपने दाहिने हाथ से थप-थपा दिया तो उसकी इस भोली हरकत पर शिरीन के नेत्र उसके नेत्रों से मिलते हुए, होठ तिर्यक हो मंद-मुस्कान में बदल गये।
कभी नदी के किनारे का भ्रमण तो कभी बन चेतना केन्द्रों का भ्रमण तो कभी यूं ही निरुद्देश्य इधर-उधर टहलने का कार्यक्रम तो फिर कभी अपने देश की अक्षुण्ण धरोहर के रूप में खड े प्राचीन मंदिरों के फर्श पर बैठे-बैठे इधर-उधर की बातें और बातों के बीच अवचेतन में शिरीन के सुखमय दाम्पत्य का निरन्तर चिंतन। यही क्रम लगभग प्रतिदिन ही देर से घर पहुँचने का कारण बन बैठता।
शिरीन की बातों का अर्थ वह न समझ पाता हो या उसके संकेत मात्रों की भाषा वह न पढ़ पाता हो, ऐसी बात नहीं। पर वह अपने को मन से पूर्णतया निर्लिप्त रखते हुए भी इस तरह संलिप्त था कि शिरीन को इसका आभास तक न हो। शिरीन की बातों का अर्थ समझते हुए भी वह ऐसा प्रकट करता जैसे कुछ समझा ही न हो और शिरीन के गलत दिशा की ओर बढ ते हर कदम पर बातों ही बातों में बात का रुख इस तरह मोड ता कि सहज ही शिरीन की उत्तेजना , माघ मास की शीत लहरी में, शीतल जल की फुहार पड े अंग-सी शिथिल हो जाती।
सफेद, संगमरमरी पत्थर से बने उस मंदिर की छठी मंजिल की सीढि यों पर खड े-खड े शिरीन ने पश्चिम दिशा की ओर देखा और उत्साहित, प्रफुल्लित मुद्रा में कहा- ''देखो, जरा इधर आकर तो देखो शुभम्। कितना सुन्दर दृश्य है। जाने क्यों, मुझे यह दृश्य निरन्तर अपनी ओर आकर्षित करता है शुभम्।''
सीढि यों के बीच बने एक झरोखे से झाँक कर देखा- सूर्यदेव, अपने चारों ओर वृत्ताकर रूप में नारंगी आभा बिखेरते हुए दिन से विदा ले रहे थे।
''देखो शुभम् देखो।'' - शिरीन ने अपनी मध्यमा उंगली सूर्य की ओर दिखाई,- ''देखो, अब कितने छोटे रूप में परिवर्तित हो गये सूर्य देव! बिल्कुल मेरी इस मध्यमा उंगली की पोर सदृश। ये ऽ ऽ हाँ।''
और सूर्य देव की ओर की हुई अपनी उंगली को शिरीन ने अपने मांथे पर टांक लिया, ठीक बिन्दी की जगह। जैसे आसमान से अपनी उंगली पर उठाकर सूर्यदेव को ही उसने मांथे पर लगा लिया हो।
'मेरी एक बात मानोगी शिरीन?' -मंदिर की सीढि यां उतरते हुए मैंने कहा तो वह मेरे चेहरे को घूरने लगी- ''क्या?''
'तुम ये अस्त होते सूर्य का देखना बन्द कर दो।'
''क्यों?''- मेरे चेहरे पर अपनी नज र गढ ा दी उसने।
'बस यूं ही।'
''फिर भी, इसमें भी कोई रहस्य हो तो वो भी बता दो।''- मेरी ओर मुस्कराते हुए वह बोली। 'हाँ, हमारे शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि अस्त होते सूर्य को देखने से मनुष्य की कांति एवं सुख क्षीण होते हैं।'
''क्या-क्या बन्द कराओगे मेरे सुखों की खातिर तुम?'' - गहरी निश्वास लेते हुए शिरीन ने कहा-
''अब तो बस एक ही इच्छा है मेरी, इस जन्म में तो तुम्हें मैंने खो दिया पर अगले जन्म में तुम मेरे ही बनना शुभम्। मैंने तुम्हें बहुत गम्भीरता से परखा है। तुम्हें देखकर ही मुझे लगता है कि मैंने जरूर ही पिछले जन्म में तुम्हारे साथ कोई असंगत व्यवहार किया था जो मुझे दण्ड देने के लिए ईश्वर ने इस जन्म में ऐसा पति दे दिया और तुम्हें इस जन्म में भी देवी स्वरूपा दीदी जैसी पत्नी।'' - कहते-कहते शिरीन के नैनों से दो मोती ढुलके और कपोलों पर दो समान्तर रेखाएं बनाते हुए ढुलक गये जिन्हें देख मैं स्वयं अपराध बोध सा महसूस करने लगता।
रुड़की इंजीनियरिंग कालेज का अन्तिम वर्ष था वह जब शिरीन भी वहीं आ गई थी किसी अन्य कालेज से अपना स्थानान्तरण लेकर।
कक्षा के सभी छात्र-छात्राओं में शिरीन का व्यक्तित्व कुछ अलग ही किस्म का था। सबसे अधिक लम्बाई। पतला छरहरा बदन। चेहरे पर सुतवाँ नासिका और गोरा रंग। व्यवहार एक दम दबंग सा, लड की होते हुए भी बिंदास स्वभाव।
कक्षा के कई छात्र उससे सम्पर्क बढ ाना चाहते थे किन्तु वह थी कि बस..... किसी को भी लिफ्ट नहीं। पर मुझमें उसे जाने क्या दिखा कि धीरे-धीरे कर वह मेरे निकट से निकटतर होती गई। अपनी हर बात वह निःसंकोच मुझे बताने लगी, घर की परिवार की और सभी की।
समय, पर लगाकर फुर्र से उड  गया और हमारी वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई। विद्यार्थी जीवन की              मधुर-स्मृतियों को संजोये सब अपने-अपने घरों को चल दिए। शिरीन ने अपने घर का पता थमाते हुए भीेगे नयनों से मेरी ओर देखा था- ''शुभम्, तुम मिलोगे न फिर कभी?''
शिरीन के इस भावुक प्रश्न का क्या जबाव देता मैं? मैं और वो अपने-अपने पारिवारिक बन्धनों में बंधे, माँ-बाप के अच्छे बच्चों की तरह अपने-अपने घरों को चले आये। लड़की की जात, माँ-बाप जहाँ भी ब्याह देंगे, वहीं बंधी शिरीन, अपनी घर-ग्रहस्थी में रम जायेगी। हो सकता है कि ऐसी ससुराल मिल जाय जहाँ इस उच्च शिक्षा का कुछ औचित्य ही न रहे और शिरीन वहीं नून-तेल, लकड ी और चूल्हे-चौके की परिक्रमा में ही होम करदे अपना जीवन, सोचते हुए मैं शिरीन को लगभग भूल ही चुका था।
परीक्षाफल आते ही मेरी नियुक्ति फरीदाबाद की एक प्रतिष्ठित फर्म में हो गई और मैं व्यस्त से व्यस्ततम स्थिति की ओर बढ ता गया। इसी दौरान घर वालों  ने मेरा विवाह भी करा दिया। आकर्षक व्यक्तित्व एवं सौम्य स्वभावी पत्नी ने अपने व्यवहार से ऐसा बांधा कि फर्म और घर दो के ही बीच बंधकर रह गया मैं। मेरे विचार से, विदुषी, मधुरभाषी एवं सौम्या पत्नी का मिलना पुरुष के लिए ईश्वर के अद्भुत उपहार मिलने से कम नहीं होता।
सब कुछ ठीक-ठीक चल रहा था कि अचानक ही एक दिन शिरीन से मुलाकात हो गई। बुझा-बुझा सा निश्तेज चेहरा और शरीरिक दृष्टि से अस्वस्थ सी लग रही शिरीन को देखकर वह एक बारगी तो पहचान ही न सका किन्तु जब शिरीन ने ही अपने चिर-परिचित अंदाज में उसे पुकारा तो वह अवाक् रह गया।
''पहचान नहीं पाये न शुभम्? कैसे पहचान पाते ? पहचानना ही होता तो ऐसे थोड े ही भुला देते मुझे कि एक भी पत्र का उत्तर तक नहीं दिया।''
'क्या ऽ ! क्या कह रही हो शिरीन? तुम्हारा तो एक भी पत्र मुझे नहीं मिला।' - मैंने आश्चर्य चकित होते हुए शिरीन की ओर देखा।
''क्यों झूठ बोलते हो शुभम्? तुम से ये उम्मीद न थी मुझे कि तुम इस तरह पलायन कर जाओगे मुझसे।''
शिरीन शायद वर्षों से ढूंढ रही थी उसे तभी तो शिकायतों की गठरी को बिना देर किए उसके सामने खोल देना चाहती थी। शायद विद्यार्थी-जीवन में वह कुछ अधिक ही उम्मीदें लगा बैठी थी उससे या फिर मन ही मन उसका वरण भी.......।
शिरीन ने बताया कि परीक्षाफल आते ही वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश चली गयी थी। किन्तु वहाँ भी एक पल को भी वह शुभम् को नहीं भुला पाई थी। विदेश से लौटने के बाद वह चाहती थी कि अपना बहुत बड़ा बिजनेस सेन्टर स्थापित करे किन्तु घर वाले अब उसे जल्दी से जल्दी विवाह सूत्र में बांधकर अपने दायित्व से मुक्त होना चाहते थे।
आखिर शिरीन ने शुभम् को कई पत्र लिखे किन्तु एक का भी जबाब नहीं मिला तो उसने पिता को शुभम् के घर भेजा। वहाँ से पता चला कि ......शुभम् का विवाह तो हो चुका है,सुनकर वह अन्दर ही अन्दर टूट गई। शिरीन ने विवाह न करने का निर्णय लिया। उसकी जिद के कारण बात इधर-  उधर भी फैली जिसका परिणाम हुआ कि अब कोई भी अच्छा घराना उसे अपने घर की बहू बनाने को तैयार नहीं था।
अन्ततः शिरीन का हाथ जिसने थामा वह शिरीन को कभी आत्मिक रूप से सन्तुष्ट न कर सका। शिरीन पल-पल कर घुटने लगी अन्दर ही अन्दर और दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करने का प्रयास करती रही। एक उच्च शिक्षित, होनहार युवती कोल्हू के बैल की तरह घर-ग्रहस्थी के कुचक्र में फंसकर रह गई। उसके सारे सपने सारी आकांक्षाएं दफन हो गईं। इसी बीच शिरीन ने एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु मानसिक धरातल पर वह अपने पति के साथ ताल-मेल बैठा पाने में पूर्णरूपेण असफल रही। शिरीन से सारी वार्ता सुनने के बाद और उसके विगत जीवन का अध्ययन करने पर शुभम् को ऐसा ही लगा और अपनी मित्र के दाम्पत्य जीवन को सुखद बनाने हेतु कुछ मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाने की सोचने लगा और बस...... यही सब सबब बनता घर पर देर से पहुँचने का। एक अजीब सा मोड  उसके जीवन में आ गया था। एक ओर वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी किसी भी तरह त्रसित हो या उसका स्वयं का दाम्पत्य जीवन प्रभावित, विखण्डित हो,किन्तु अपनी मित्र के जीवन को भी वह सुखी देखना चाहता था। ऐसी परिस्थितियों में वह क्या करे?
उसने पत्नी की ओर अपराधी भाव से देखा। पत्नी अब भी मौन थी। बस आँखों में एक निरीहता का भाव लिए वह उसे देखे जा रही थीं, एकटक। पत्नी का यह मौन बोलने से भी कहीं अधिक मारक होता है। वह अन्दर तक घायल हो उठता है। उसका जी करता है कि पत्नी को दोनों बाहों से पकड़ कर झिझोंड  दे और पूछे कि क्या तुम प्रस्तर की बनी हो या फिर तुम्हारे अन्दर संवेदनाएंॅ ही नहीं हैं जो कभी मुझसे लड ती तक नहीं? आम पत्नियों की  तरह तुम भी जोर-जोर से चीखो, चिल्लाओ, मुझे उलाहने दो और पर-स्त्री के पास जाने की बात कहकर मेरी बदनामी करो तो कम से कम अपराध-बोध से मैं अकेला तो न घिरा पाऊँ अपने को। पर नहीं, तुम तो बस...... भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति-सी, प्रस्तर शिला की तरह मौन, बिषपाई नीलकण्ड की भाँति सारा गरल स्वयं ही पीती रहती हो और उस हलाहल की गर्मी से ही मैं विह्वल और अपराधी मानने लगता हूँ अपने आप को।
मन में उठ रहे बवण्डर को तथा पत्नी की मौन आँखों की बेचारगी को वह झेल नहीं पा रहा था। अचानक उसके दोनों हाथ पत्नी की ओर माँफी माँगने की मुद्रा में जुड  गये।
''मुझे माफ कर दो मधु, कल से ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। बिल्कुल भी नहीं।''
मेरे हाथों को अपने दोनों हाथों के बीच लेते हुए     मधु ने धीरे से कहा- ''ठीक है, कल शिरीन को यहाँ ले कर आना। हो सकता है एक स्त्री होने के नाते मैं दाम्पत्य सुख का रहस्य उसे, तुमसे बेहतर समझा सकूंँ।''
सुनकर मैं अवाक् रह गया। तो क्या पत्नी को सब पता था, देर से घर आने का कारण। फिर भी वह........ सुनकर मेरी नजरों में पत्नी का व्यक्तित्व और विशाल हो उठा, अपरिमित। 






                      कहानी-               अभिलाषा            डाॅ.दिनेपाठक ‘शशि’

            ''काका, रमेश भैया आये हैं।''-कहती हुई कृष्णा एक पैर पर उछलती हुई बाहर को भाग गई। साधूसिंह ने हुक्का गुड़गुड ाना बन्द कर , हुक्का की नली जयवीर की ओर बढ ा दी और खुद दरवाजे की ओर नजर गड ाये कहीं अतीत में खो गये।
            कितनी प्रसन्नता हुई थी जब रमेश को कृषि विश्व विद्यालय में प्रवेश मिल गया था। साधूसिंह की अभिलाषा थी कि रमेश को पढ ा-लिखा कर खूब योग्य बनायेगा ताकि नई-नई तकनीक से खेती का कार्य कर सके। ट्रैक्टर का हल, कल्टीवेटर, थ्रेसर, ट्यूबवैल और न जाने क्या-क्या खेती के नये-नये साधन जुट गये हैं अब तो। ट्रैक्टर पर बैठो और फट् से खेत जुतकर तैयार। वो जमाना कुछ और था जब दो बैलों से ही पूरी खेती को सम्भालना होता था। थोड ी सी खेती के लिए रातभर हल चलाना पड ता था और सिंचाई! सिंचाई के लिए तो बहुत ही मेहनत करनी पड ती थी। ट्यूवैल की    सुविधा तो थी नहीं उस समय। रहट या पैरि से ही काम चलाना पड ता था। थोड े से खेत की सिंचाई में ही दिन भर लग जाता।
            उम्र यही सत्रह-अट्टारह वर्ष की रही होगी तब, जब उसके काका ने कहा था-''ले, सम्भाल रे साधू अपनी खेती-बारी, अब अपने आप। मेरे बाजू अब या काम के लायक नॉंय रहे।''
            उसने भी हॅंसी-खुशी काका के साथ काम में  हाथ बंटाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे जब सारा काम समझ में आ गया तो फिर स्वयं ही सारा कार्य-भार सम्भाल लिया था उसने। दो बैल, दो भैंस और एक गाय सौपी थीं काका ने। साधूसिंह  पशुओं की खूब टहल करता और खुद भी खूब खाता-पीता और मस्त रहता।
            सन् १९५४ का वर्ष था जब जिला विकास एवं ग्रामोद्योग योजना का आरम्भ किया था सरकार ने।साधूसिंह ने भी उस योजना में भाग लिया था और एक एकड  जमीन में सात मन दो सेर और दो छटाक(लगभग २८२.१०० कि०ग्रा०)गेंहूॅं का उत्पादन करके जिले भर में तृतीय स्थान पाया था उसने। इससे साधूसिंह के उत्साह में बहुत वृद्धि हुई और अगले ही वर्ष १९५५ ई० में जिला विकास एवं ग्रामोद्योग योजना के अंतर्गत ही उड़द की पैदावार पर उसे प्रथम पुरस्कार मिला था साथ ही कृषि विभाग की ओर से उसी वर्ष गेंहूॅं की पैदावार पर द्वितीय पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया जिसमें भारत भ्रमण का उसका पूरा खर्च भी भारत सरकार ने ही वहन किया था।
            कहॉं वह कक्षा तीन पास, गॉंव का गँवार किसान  और कहॉं मुफ्त में पूरे भारत की सैर। मन को अच्छी लगने वाली उस सैर की बहुत सी बातें आज भी उसके दिमाग में तरोताजा हैं। इसलिए प्रथम पुत्र के जन्म पर ही उसने निर्णय कर लिया था कि खुद तो वह पढ -लिख न सका पर अपने बेटे को कृषि का ऐसा ज्ञान दिलायेगा कि प्रदेश की बात क्या चले पूरे भारत में प्रथम चुनी जाये उसकी खेती।
            यही सोच उसने अपने पुत्र रमेश को शुरू से ही कृषि वाले विषय दिलाये थे और आई.एस.सी. कराने के बाद उसे पन्तनगर कृषि विश्व विद्यालय में प्रवेश दिला दिया था। पहली,दूसरी,तीसरी और फिर चौथी वर्ष की पढ ाई भी अच्छे अंकों सहित पास करने के बाद रमेश जब इंजीनियरिंग की पॉंचवीं वर्ष में आया तो साधूसिंह को अपार प्रसन्नता हुई। पर उससे भी अधिक खुशी उस दिन हुई जिस दिन रमेश की चिट्ठी मिली-''अपनी पढ ाई पूरी करके मैं पन्द्रह दिन बाद गॉंव आ रहा हॅूं।''
            पत्र पाते ही साधूसिंह के दिल में खुशी का सागर उमड  पड ा और वो रमेश के आने का इन्तजार करने लगा। एक-एक दिन गिनते हुए साधूसिंह गॉंव वालों से कहता-''रमेश के आइबे में अब बसि पॉंच दिना औरु रहि गये हैं। इंजीनिरी करि कें आय रहों है मेरौ बेटा।''
            साधूसिंह की बात सुनकर गॉंव वाले हॅंस पड ते-'इंजीनिरी करिकें आय रहौ है तौ तोकूॅं कहा? अब तोय थोड ाई पूछैगो बू?' ''चौं, अब चौं नॉय पूछैगो, अब का बू मेरौ बेटा नॉय रहौ?''-साधूसिंह का उत्तर सुन कर गॉंव वाले हॅंसने लगते-'अरे साधूसिंह तू तौ निरौ साधू ही रह्यौ। जान्तु नॉय है, गॉंव के छोरा सहर में जाय के बिगरि जात हैं। शहर में पढ़े-लिखे द्रौतु देखे हैं हमनें। फिर तो उनकूं अपनौ थैला लै जाइबें मेंऊ सरम लगै है सरम।
''मेरौ बेटा ऐसौ नाय है सकै।''साधूसिंह प्रतिवाद करता पर जैसे एक ही जगह पर बार-बार पानी का घड ा रखने से पत्थर में द्री गढ्डा बन जाता है उसी तरह गांव वालों की बात सुन-सुन कर साधूसिंह द्री विचलित होने लगा। जब द्री अकेले में गांव वालों की बातें याद आ जाती तो वह सोचने लगता-'कहीं इनकी बातें सच निकली तो?' फिर स्वयं ही बड बड ाने लगता-ऐसौ नाय है सकै। पढि -लिखि कै तो समझदारी बड ै है। ऐसौ कैसे है सकै है कै कोऊ पढि -लिखि कै गवार बनि जाए।
परीक्षाफल आते ही रमेश ने नौकरी हेतु आवेदन द्रेजने शुरू कर दिये और कुछ दिन बाद ही वह,अपने पिता के,नई तकनीकी से कृषि करने और फिर 'कृषि-पंडित' के खिताब मिलने की कल्पना को कल्पना में ही बदल शहर चला गया था।
''नमस्ते पिताजी।''-कहते हुए रमेश ने पैर छुए तो साधुसिंह वर्तमान में लौट आया।
''कितने दिनन की छुट्टी लैके आयो है रमेश?''-राजी खुशी के बाद साधुसिंह ने पूछ लिया।
'एक महीने की।'-रमेश का उत्तर सुन उन्होंने उसके चेहरे को निहारा फिर उदास हो गये।
      +    +          +
सुबह का समय था। दाड ी बनाने के लिये रेजर आदि रखकर बैठा ही था रमेश कि धोती-कुर्ता पहने,दो-तीन किसान आ गये और ''रमेश द्रैया राम-राम'' कहकर बैठ गये। रमेश को बहुत संकोच हुआ पर औपचारिकतावश उसने पूछ लिया-''पिताजी से कुछ काम है क्या?''
''नाहीं द्रैया,हमें टूबैल के लियां कर्जा लेनौअ, परि हम ठैरे गमार। सोची अपनौ रमेश पढ़ो-लिखौ बाबू है, चलिकें पूछि आवैं।''
उनकी सीधी-सादी बातें सुन, रमेश मन ही मन हॅंस पड ा। दोपहर होते-होते कई किसान आ गये। किसी को सीमेण्ट की बोरी खरीदने के लिये अर्जी लिखानी थी तो किसी को खाद आदि की। काफी समय तक कुछ न कुछ समझाते रहने के कारण उसका सिरदर्द करने लगा। उसे झुंझलाहट हुई और उसने निर्णय लिया कि कल से किसी को कुछ नहीं बतायेगा। पर अगले दिन ही किसान अपनी-अपनी समस्याएॅं लेकर आ गये। उनकी द्रोली निष्कपट बातें सुन रमेश मना न कर सका।
कई दिन इसी तरह बीत गये तो उसने सोचा कितने नासमझ हैं ये किसान। अद्री तक इन्हें दुनियादारी का कुछ द्री पता नहीं। उसने किसानों को खेती के बारे में कुछ खास-खास जानकारी देने की योजना बनाई और सद्री किसानों को प्रतिदिन दो घंटे पढ ाना शुरू कर दिया। दिनों-दिन उसके यहॉं आने वाले किसानों की संखया बढ ती गई। देख-देख कर उसे आश्चर्य हुआ साथ ही किसानों का द्रोला-छलकपट से दूर व्यवहार उसे बहुत प्यारा लगने लगा। वह शहर व गांव के व्यवहार की तुलना करने लगा।
एकदिन अचानक ही उसकी तबियत खराब हो गई तो सारे लोग अपना-अपना काम छोड कर उसके पास चले आये। कोई देशी घी की मालिश करने लगा उसके सिर पर तो कोई देशी दवा ढूँढ कर लाया। उसे बहुत अच्छा लगा। उसे लगा कि ये किसानों की टोली ही उसका अपना परिवार हैं। कितना अपनत्व है इनके व्यवहार में। और शहर में? कितना अंतर है गाँव और शहर में?
'द्रारत के प्राण, गांव में बसते हैं।'-अचानक उसे ये पंक्तियॉं याद हो आई और गांव के पहनावे व ग्रामीण लोगों के प्रति उसके दिल में एक ललक पैदा हो गई।
किसानों को खेती की बाते समझाते-समझाते रमेश पेन्ट-शर्ट की जगह धोती-कुर्ता पहनने लगा है,देखकर          साधुसिंह को बहुत प्रसन्नता हुई। पर जैसे-जैसे रमेश के जाने के दिन पास आ रहे थे,साधूसिंह की उदासी बढ़ती जा रही थी। एक दिन पहले ही उसने पूछ लिया-''बेटा कल कौनुं गाड ी तें जानौ है?''
''पिताजी अब में शहर नहीं जा रहा। यहॉं रहकर ही किसानों को प्रशिक्षित करूॅंगा।''
'का! अब तू सहर नहीं जाय रहौ?'-साधूसिंह को जैसे विश्वास ही नहीं हुआ।
हॉं,पिताजी,ये देखकर मुझे बहुत दुःख हुआ है कि किसान,जिनपर देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य का उत्तरदायित्व है वो खेती की नई तकनीक से पूरी तरह अनजान हैं। यहॉं तक कि सरकार के इतने प्रचार-प्रसार के बावजूद उन्हें न तो खाद-पानी की जानकारी है और न ही उन्नत बीजों का ज्ञान।
'या सब कौ कारण जानत हौ रमेश?'-साधूसिंह का दर्द,आवाज बन कर फूट पड ा,-'सुनि,मैं बताऊँ। या सब कै लिये तुम पढ े-लिखे जिम्मेवार हौ। जहॉं पढि -लिखी कैं कछु करिबें लायक द्रये कैं द्रागि छूटे सहर। तुम लोग गामन में रहिकैं, किसाननु कूं ठीक तैं बताऔ, समझाऔ,तब न।''
''ठीक कहते हो पिताजी,अब मेरी ऑंखे खुल गई हैं। अब में यहीं,किसानों के बीच रहकर उन्हें खेती की नई-नई जानकारियों से अवगत कराऊँगा।''
सुनकर साधूसिंह का दिल प्रसन्नता से द्रर उठा। अपनी अद्रिलाषा को पूरा होते देख,उन्होनें रमेश को अपने सीने से लगा लिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बाल वाटिका  मार्च-2019 में प्रकाशित प्रेरक बाल कहानियाँ की समीक्षा

इस वेबपेज पर संग्रहित सभी सामग्री के सर्वाधिकार डॉ० दिनेश पाठक''शशि'' के अधीन है

.