मेरा जीवन अब तक
कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में स्मृतियों का विपुल भण्डार समाहित रहता है। बचपन से वृद्धावस्था तक न जाने कितनी घटनाएं उसकी जिन्दगी में घटित होती हैं, उनमें से कुछ विस्मृत हो जाती हैं तो कुछ स्मृति-पटल पर पत्थर की लकीर की भांति स्थिर हो जाती हैं। विशेषकर वे घटनाएं जो मनुष्य की भावनाओं को अनजाने में आहत कर जायें, मन को गुदगुदा जायें या फिर प्रेरणा प्रदान कर जायें। बंगला के एक उपन्यासकार शरतचन्द्र के उपन्यासों में बहुत सी ऐसी घटनाओं का जिक्र है जिनमें बचपन में एक लड़की और लड़के के बीच अनजाने में कहे गये वाक्य या घटनाओं ने जिन्दगीभर उन्हें भावनात्मक रूप से जोड़े रखा, जैसे श्रीकान्त उपन्यास की नायिका ने बचपन में अनजाने में करौंदा की माला बनाकर श्रीकान्त के गले में वरमाला की तरह पहना दी थी जिसे श्रीकान्त ताउम्र नहीं भूल पाया।
मेरे जीवन में भी बचपन से ही बहुत सारी ऐसी घटनाएं हुर्इं जिन्होंने जाने या अनजाने में मेरे बालमन को प्रभावित व स्पनिदत किया। जिला बुलन्दशहर के मेरे गाँव रामपुर में तीन-तीन स्कूल होते हुए भी मेरी छोटे ''अ से ''ज्ञ तक की बारह खड़ी, पटटी-बुददका पर घर पर ही पिताजी ने पूरी करार्इ उसके पीछे कारण ये रहा कि स्कूल में पहले ही दिन एक अध्यापक ने किसी बात पर मेरे पेट में जोर से चिकुटी काट दी जिससे फिर उस स्कूल में जाना मेरे बालमन ने गवारा नहीं किया भले ही स्कूल का समय होते ही मुझे घर के अन्दर रजाइयों के बीच दुबकना पड़ता। फिर कक्षा तीन तक की पढ़ार्इ कन्या पाठशाला में हुर्इ, जहां सहपाठिनें मुझे फर्श पर अपने-अपने पास बैठाने के लिए खींचातानी करती थीं। पिताजी संस्कृत एवं ज्योतिष के विद्वान थे वे मुझे अपनी ही तरह संस्कृत का विद्वान बनाना चाहते थे अत: कक्षा 6 पास करते ही उन्होंने मुझे सांगवेद संस्कृत.महाविधालय नरवर, नरौरा (जो काशी वि.वि. के बाद दूसरे नम्बर का संस्कृत.महाविधालय था) में प्रवेश दिला दिया किन्तु मेरे भाग्य में इंजीनियरिंग की पढ़ार्इ थी सो मैं वहाँ से 2-3 महीने बाद ही अस्वस्थ होकर घर वापस आ गया और पुन: उसी विधालय में पढ़ने लगा ।पिताजी द्वारा बनार्इ गर्इ जन्मपत्रिकाओं को सुन्दर रूप में लिखना तथा सुन्दर-सुन्दर पुष्पों के पौधे लगाना और गांव में अमावस्या व पूर्णमासी के दिन संस्कृत के श्लोकों सहित श्री सत्यनारायण की कथा वांचना मैंने जब मैं कक्षा तीन में पढ़ता था तभी से प्रारम्भ कर दिया था।
पिताजी संस्कृत के विद्वान और जीवन की व्यवहारिकता व सरलता में विश्वास करने वाले थे तो माँ, अनपढ़ व सपाट बयानी में विश्वास करने वाली, बस किसी न किसी बात पर घर में माता-पिता में अक्सर ही वाकयुद्ध होने लगता जिससे मेरा बाल मन अन्दर ही अन्दर बहुत रोता। गाँव के घर व घेर की छतें तब कच्ची मिटटी से बनीं थीं जो बरसात में टपकती थीं। बरसात में कभी-कभी तो अपनी और पिताजी की चारपार्इ को इधर से उधर सूखे में खिसकाने के चक्कर में सारी रात बीत जाती थी तो मेरा बालमन निर्धनता के दंश से पीडि़त रातभर जाने क्या-क्या सोचता रहता। जब मैं हार्इ स्कूल का छात्र था, तब भारत-पाकिस्तान के बीच युध्द हो रहा था, रेडियो पर रोजाना मरने वाले सैनिकों के बारे में सुन-सुन कर मेरा भावुक मन रो उठता था। मैं सोचने लगता कि आखिर दो देश आपस में लड़ते क्यों हैं। क्यों नहीं एक-दूसरे को सुख-शान्ति से जीने देते? इस तरह सम्वेदना एवं भावुकता बचपन से ही मेरी सहचरी रही है।
कक्षा-6 में एकबार मैं अपने रिश्तेदार के यहां बुलन्दशहर के एक गांव चित्सौन में गया था जहां एक कमरे में उस घर की एक हमउम्र लड़की मेरे इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रही पर जब मेरी ओर से कोर्इ प्रतिक्रिया न हुर्इ तो वह लड़की मुझें 'मूर्ख कहकर पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गर्इ, जिसका कारण उस समय मेरी समझ में नहीं आया था या पिताजी द्वारा प्रतिदिन सोने से पूर्व दी गर्इ शिक्षा-'' मातृवत पर दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ठवत । आत्मवत सर्व भूतेषु, य: पश्यति स, पश्यति। ने मुझे कुछ भी ऐसा-वैसा करने से रोक रखा था। मेरा भावुक व संवेदनशील हृदय उस लड़की के व्यवहार के बारे में बहुत देर तक सोचता रहा था। इस घटना को मैं आज तक विस्मृत नहीं कर पाया हूँ।
गांव में मेरे पड़ोस के एक भार्इ श्री रामपाल सिंह दिल्ली में सस्ता साहित्य मण्डल में नौकरी करते थे जहां से उपन्यास, कहानी, लेख एवं जीवनियों की बहुत-सी अच्छी-अच्छी पुस्तकें वे अपने छोटे भार्इ श्री नरेन्द्र सिंह को लाकर दिया करते थे, जो मेरा कक्षा-6 से 8 तक का सहपाठी था। उस समय नरेन्द्र सिंह को उन साहित्यक पुस्तकों में विशेष रुचि न होने के कारण मैं ही उन पुस्तकों को उनके यहां अलमारी में सहेज कर रखता था, उनको पुस्तकालय की भांति अन्य लोगों को रजिस्टर में हस्ताक्षर कराकर पढ़ने को देता तथा स्वयं भी पढ़ता था। रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र, विमल मित्र, रांगेय राघव, गौरीशंकर राजहंस, प्रेमचन्द आदि अनेक लेखकों के उत्कृष्ट साहित्य को मैंने कक्षा-6, 7 में ही पढ़ लिया था। गुलशन नन्दा, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत जैसे उपन्यासकारों के सामाजिक एवं जासूसी उपन्यास भी नरेन्द्रसिंह के यहां से मैं पढ़ चुका था। अत: कक्षा-10 पास करने के बाद, सन 1973 में घर से 10 कि.मी. दूर डिबार्इ जहां के कुबेर इण्टर कालेज में मैं, कक्षा-11 का छात्र था, में पहली बार किसी बड़े पुस्तकालय में घुसा तो वहां पराग, चंपक, लोटपोट, दीवाना, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाएं पढ़कर बहुत आनन्द आया। उसी दिन, उसी वक्त मेरे दिमाग में एक बात कुलबुलाने लगी कि ऐसी रचनाएं तो मैं स्वयं भी लिख सकता हूँ।
बस, घर आकर मैंने एक कहानी लिखी, पर पत्रिका में प्रकाशनार्थ किस तरह भेजी जाती है- इस बात की जानकारी संगी-साथी ही नहीं, हिन्दी के अध्यापक भी न दे सके तो मैंने स्वयं ही फुल स्केप कागज पर लिखकर वह रचना लोटपोट को भेज दी। 15-20 दिन बाद रचना के साथ जो कागज लौटे उनसे निराशा की जगह प्रसन्नता ही अधिक हुर्इ, क्योंकि लोटपोट के संपादक ने लोटपोट में प्रकाशन हेतु भेजी जाने वाली रचनाओं की पाण्डुलिपि को किस प्रकार लोटपोट में भेजा जाय, ये नियम भी भेजे थे। फिर क्या था- एक रास्ता मुझे मिल गया था।
एक दिन मैं, शाम को विधालय से वापस आ रहा था तो रास्ते में ही मुझे पता चला कि मेरी छोटी बहन किरन, जो मुझसे मात्र तीन वर्ष छोटी थी, कुँए में गिर जाने से मर गर्इ है तो मेरा भावुक मन रो पड़ा और मेरे मुँह से एक कविता की 7-8 पंक्तियॉं स्वत: ही फूट निकलीं- ''थी एक किरन जो आँखों की, जाने विलुप्त हो गर्इ कहाँ। फूलों सी सुन्दर बाला वह , मेरी बहन खो गर्इ कहाँ।
सन 1975 में इण्टरमीडिएट पास करने के बाद सेठ गंगासागर जटिया पॉलिटैक्निक खुर्जा में त्रिवर्षीय विधुत इंजीनियरिंग डिप्लोमा में प्रवेश लेने पर पहली बार अकेले, घर से दूर रहने का अवसर आया किन्तु तब तक पराग, दीवाना, लोटपोट, चंपक, आदि बाल पत्रिकाओं के साथ-साथ सारिका, धर्मयुग, साप्ता.हिन्दुस्तान, कादमिबनी, नवनीत आदि जैसी शुद्ध साहितियक पत्रिकाएं मेरी संगी-साथी बन चुकी थीं। 'दीवाना बाल पत्रिका के पत्र-मित्र स्तम्भ में छपे एक पते पर सम्पर्क करने पर, झांसी के रहने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री किशोर श्रीवास्तव, जो वर्तमान में कृषि विस्तार निदेशालय, राजभाषा विभाग में सहायक निदेशक के पद पर सेवारत हैं; मेरे पत्र-मित्र बन गये।
उसी दौरान हर छोटी-बड़ी बात मुझे प्रभावित करती और मैनें उस पर कविता, कहानी, हास्य कहानी, लघुकथा आदि लिखकर कापी में कैद कर लेता।
पॉलिटैक्निक के मशीन शाप अनुदेशक श्री राधेश्याम पाठक, स्वान्त:सुखाय कविताएं लिखा करते थे, उनके निवास पर मैं अपने सहपाठी श्री भानुप्रताप गौतम एवं श्री के.एस.चौहान को लेकर अक्सर ही कविताएं सुनने-सुनाने का कार्यक्रम बनाता।
खुर्जा में,मैं जिस मकान में किराए पर रहकर पढ़ रहा था, उस मकान के मालिक-मकान, एन.आर.र्इ.सी. कालेज, खुर्जा के रसायनशास्त्र के प्रोफेसर थे जो अक्सर ही अपनी पत्नी की बेरहमी से पिटार्इ किया करते थे। यह बात मेरे भावुक मन को बहुत झकझोरती थी। एक नारी पर होते इस अत्याचार को देखकर मेरे मन में आक्रेाश पैदा होता जिसके कारण मैनें एक दिन प्रोफेसर के कमरे में जाकर यह प्रश्न दाग बैठा कि एक सभ्य एवं पढ़ा-लिखा प्रोफेसर अपनी पत्नी के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार क्यों करता है?
उसी मकान के सामने वाले घर में सुन्दर और चुलबुली सात बहनें थीं उनको लक्ष्य कर मैंने एक हास्य रचना 'वह दिन लिखी, जिसे झांसी से प्रकाशित 'मृगपाल मासिक पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेजने पर हास्य-प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार प्रदान किया गया। एक कविता पॉलिटैक्निक की पत्रिका 'टैग मैग में छपी तो सहपाठी यह मानने को तैयार ही नहीं हुए कि कार्बन और भगवान में तुलनात्मक सामंजस्य सिद्ध करने वाली यह कविता स्वयं मैंने लिखी है।
सन 1978 में विधुत इंजीनियरिंग का त्रिवर्षीय डिप्लोमा पूर्ण करने के बाद, परीक्षाफल आने तक लगभग 6 माह तक मैंने कक्षा-10 के छात्र-छात्राओं को टयूशन पढ़ार्इ और उनके व्यवहार-अनुभवों पर कहानियां लिखने एवं पत्र-पत्रिकाओं में भेजने का कार्य भी किया। सन 1978 में धामपुर (बिजनौर) से प्रकाशित होने वाली युवा हिन्द, आगरा से श्री हरिनारायण जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'रूप कंचन, ग्वालियर से प्रकाशित होने वाली 'मनियां पत्रिका, ललितपुर से श्री सन्तोष शर्मा के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका 'किशोर कानित, झांसी से किशोर श्रीवास्तव एवं अरुण कुमार मुन्ना जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका मृगपाल आदि में मेरी कहानियां प्रकाशित हुई। सन 1979 में बच्चों की शरारत देखकर एक कहानी लिखी 'सजा' जिसे चंपक में प्रकाशनार्थ भेज दिया। मेरा उस समय खुशी का ठिकाना न रहा जब 15 दिन बाद ही 'चंपक ने मेरी उस कहानी को प्रकाशनार्थ स्वीकार करते हुए रु 40- के वाउचर पर हस्ताक्षर करके वापस करने एवं अपना फोटो, परिचय भेजने हेतु पत्र लिखा।
उसी दौरान मैंने भूत-प्रेत की एक घटना देखी तथा उस पर कहानी लिखी 'चुड़ैल' जिसे दिल्ली प्रेस की पत्रिका 'भूभारती ने रु 60- के पारिश्रमिक सहित प्रकाशित किया।
सन 1979 में मैंने गुलमर्ग इलैक्ट्रोनिक्स लिमिटेड, फरीदाबाद में क्वालिटी कण्ट्रोल इंसपेक्टर के पद पर सर्विस ज्वाइन कर ली थी। फरीदाबाद में साहित्यकार श्री जगन्नाथ गौतम से मुलाकात हुर्इ। फैक्ट्री से डयूटी ऑफ होते ही मैं गौतम जी की फरीदाबाद के सैक्टर एक में स्थित गौतम कटपीस हाउस पर पहुंच जाता, जहां दुकान बन्द होने तक गौतम जी के साथ साहित्यिक गपशप होती, फिर गौतम जी की कोठी पर एक साथ भोजन करने के बाद फरीदाबाद के स्थानीय साहित्यकारों श्री अशोक गुप्ता, बलराम तोमर, अनिल कौशिक, अंजना अनिल, खामोश सरहदी, आदर्श मोहन सारंग, स्वामी वाहिद काजमी, गुलशन बालानी, विश्वबन्धु आदि से मुलाकात एवं साहितियक गपशप हेतु चल पड़ते तो कभी फरीदाबाद के बाटा चौक सिथत पार्क में बैठकर देश-विदेश के साहित्यकारों व पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी रचनाओं पर बातचीत करते रहते।
रात को 1-2 बजे गौतम जी से विदा लेकर, 3 कि.मी. सार्इकिल चलाकर मैं अपने किराये के मकान पर पहुँचता फिर बैठ कर कहानियाँ लिखता,पत्र-पत्रिकाओं को भेजने के लिए हाथ से लिखकर कहानियाँ फेयर करता और उस दिन डाक से आये पत्र-पत्रिकाओं को देखता व 8-10 पत्रों का जबाव लिखता। फरीदाबाद में, मैं जहाँ भी किराये का मकान लेकर रहा वहीं मालिक-मकान को मुझसे तीन बातों की नाराजगी रही, पहली- मेरी प्रतिदिन इतनी ढेर सारी डाक क्यों आती है। दूसरी-रात के 2-3 बजे तक बिजली क्यों जलाता हूँ तथा तीसरी- मेरे मिलने वाले बहुत आते हैं।
सन 1979-80 में फैक्ट्री के माहौल एवं मजदूरों के शोषण से उत्पन्न आक्रोश ने मुझे कर्इ कहानियाँ लिखने हेतु मजबूर किया। ''रोटी के लिए'' लघुकथा जो जून-79 में तारिका पत्रिका में चित्र व परिचय सहित छपने वाली मेरी पहली लघुकथा थी।उसके बाद कादम्बिनी में समस्यापूर्ति के अन्तर्गत मेरी कविता को द्वितीय पुरस्कार मिला। 11 अप्रेल 1980 को प्रथम बार कहानी के प्रसारण हेतु आकाशवाणी रोहतक से अनुबन्ध-पत्र मिला तो बस, फिर क्या था, मैंने अपनी एक कहानी ''अनिर्णीत राहें'' को कण्ठस्थ कर लिया ताकि रिकार्डिंग में हिचक न हो। उसके बाद तो हर 2 महीने के अन्तराल से आकाशवाणी पर कहानियों की रिकार्डिंग का सिलसिला चल निकला।
मेरी सभी कहानियों के पात्र मेंरे आस-पास के जीते-जागते व्यक्ति ही रहे हैं थेाड़ी-बहुत कल्पना के मिश्रण के साथ।अपने सहपाठी के भार्इ द्वारा विदेशी लड़की से शादी कर लेने पर घर में उत्पन्न वातावरण पर मैंने कहानी लिखी -''दोहरे मापदण्ड'' जो आकाशवाणी व तारिका में प्रसारित व प्रकाशित हुर्इ। गाँव में प्रधान पद हेतु हुए हत्याकाण्ड पर मेरी कहानी-''इतिहास का दर्द'' जन्मी जो आकाशवाणी से प्रसारित व आकाशवाणी पत्रिका में प्रकाशित भी हुर्इ। यही कहानी जब अगस्त-85 की कादमिबनी में प्रकाशित हुर्इ तो विभिन्न जगहों से ढेरों प्रशंसा-पत्र मिले।
सन 1979-80 में ही फैक्ट्री की नौकरी के साथ-साथ ''राष्ट्रीय श्रमिक पाक्षिक का सह संपादन भी किया तथा फिर श्री जगन्नाथ गौतम व हरिहर प्रसाद श्रीवास्तव के साथ मिलकर ''विजय यात्रा साप्ताहिक'' भी निकाला जिसमें रात-रात भर जागकर सामग्री तैयार करना, डमी बनाना, प्रूफ पढ़ना फिर बेचने का भी प्रबन्ध आदि कार्यों ने काफी खटटे-मीठे अनुभव कराये।
अप्रेल-1981 में मेरी नियुक्ति मध्य रेलवे में चार्जमैंन के पद पर हो जाने पर मुझे फरीदाबाद छोड़ना पड़ा और उसी के साथ विजय यात्रा साप्ता0 की यात्रा भी स्थगित हो गर्इ।
30 जून 1982 को कवि श्री चन्द्रपाल शर्मा 'रसिक हाथरसी की ज्येष्ठ पुत्री ''शशि'' जो विवाह पूर्व लेख व कहानियाँ लिखा करती थी के साथ प्रणय हो जाने पर हम दोनों अपनी-अपनी रचनायें एक दूसरे को दिखाकर एवं आवश्यक हुआ तो उचित संशोधन करके पत्र-पत्रिकाओं को भेजने लगे।शादी के बाद अपने नाम के साथ पत्नी का नाम जोड़ लेने पर गुड़गाँव के मेरे साहित्यकार मित्र श्री ज्ञानप्रकाश विवेक ने काफी बुरा महसूस किया, मुझे लताड़ा भी।
सन 1978 से 85 तक का दौर ऐसा रहा जब प्रत्येक महीने देश की व विदेश की भी (नवनीत,कादम्बिनी,सारिका,साप्ता.हिन्दुस्तान,धर्मयुग, अमर उजाला, दै.जागरण,विश्वविवेक एवं बच्चों की पत्रिका चंपक, बालक,आदि) कम से कम 6-7 पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ छपती रहीं, फिर सन 1986 में पत्नी का सीधा हिस्सा सिर से पैर तक पक्षाघात का शिकार हो जाने के कारण डाक्टरों के पास भागा दौड़ी में लेखन प्रभावित हुआ।
उसके बाद पत्नी के ठीक होने पर लेखन ने फिर से गति पकड़ी और मेरा कहानी संग्रह-''अनुत्तरित'' और दो बाल-कहानी संग्रहों का, साथ ही पत्नी के कहानी संग्रह-''रिश्तों की सुगन्ध'' व बाल उपन्यास-''निखिल और ग्रहों की अनोखी दुनिया'' का विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशन हुआ।
कहानी लेखन महाविधालय अम्बाला छावनी के निदेशक डॉ० महाराज कृष्ण जैन तथा उनकी पत्रिका 'तारिका' मासिक ने एवं आकाशवाणी की कार्यक्रम अधिशासी (वर्तमान में डी.डी.जी.) डॉ०अलका पाठक का, मेरे साहित्यक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। डॉ०अलका पाठक की प्रेरणा से मैंने आकाशवाणी से प्रसारण हेतु नाटक लिखे, झलकियां लिखीं तथा कहानी एवं ब्रजभाषा में भी रचनाओं का सृजन किया।मेरे दोनो भार्इ व भाभियों ने भी मुझे पुत्रवत स्नेह देते हुए सदैव मुझे प्रेरित किया है।
सन 1998 में पत्नी का सीधा हिस्सा फिर से पक्षाघात का शिकार हो गया और लेखन की गति अवरुध्द हो गर्इ। पत्नी पूरी तरह ठीक भी नहीं हो पार्इ थी कि 10 नवम्बर 2000 को जब मैं डयूटी से घर पहुँचा तो पता चला कि पत्नी का लिखना, पढ़ना एवं बोलना सब कुछ समाप्त हो गया है साथ ही कभी भी फिटस पडने लगे जिसके लिए कर्इ-कर्इ सप्ताह तक आर्इ.सी.यू. में रहने के बाद, जब घर लेकर लौटता तो कर्इ हफतों में चलने लायक हो पाती पत्नी,और इस प्रकार दफतर के साथ-साथ घर के पूरे काम की जिम्मेदारी भी मेरे ही ऊपर आ जाती, कारण घर,परिवार व रिश्तेदारी किसी भी जगह दूर-दूर तक कोर्इ ऐसा बच्चा या व्यक्ति नहीं जिसे सहायता के लिए कुछ समय के लिए अपने पास बुलाया जा सके।पिछले दस वर्ष से यही क्रम जारी है, आगरा के न्यूरोफिजीशियन का इलाज जारी है । पत्नी के स्वास्थ्य लाभ हेतु जिसने भी जो भी बताया, मैंने वही किया, यंत्र,तंत्र,और रात के बारह बजे तक बैठकर मंत्रों का जाप भी मैंने स्वयं किया शायद इसीलिए पत्नी आज तक जिन्दा भी है,क्योंकि मेरा ऐसा विचार है कि ग्रह (सितारे) ,पूरी जिन्दगी मनुष्य को प्रभावित करते रहते हैं ऐसे अनेक अनुभव जिन्दगी के मैंने इस दौरान किए भी हैं।
जब बड़ा पुत्र 16 वर्ष का था तथा छोटा 11 वर्ष का,पढ़ार्इ के साथ-साथ दोनों ने मिलकर कर्इ वर्ष तक किचिन व घर के अन्य कामों में मेरा हाथ बटाया है। अब बड़ा पुत्र बड़ोदरा में नौकरी पर और छोटा अमरावती विश्वविधालय में एम.सी.ए. का छात्र है।घर पर मैं और पत्नी। पत्नी, जो आज भी पूरा एक वाक्य नहीं बोल पातीं।बोलने का बहुत प्रयास करती हैं पर जब असफल हो जाती हैं तो विवशतावश उनके नेत्रों से झर-झर आँसू बहने लगते हैं और वे फूट-फूट कर रोने लगती हैं तो मैं भी अपने आप को रोक नहीं पाता। घर व दफतर के सभी कामों में 24 घंटे कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता मुझे।फिर भी रात को थोड़ा-बहुत समय चुराकर लिखने के प्रयास स्वरूप अब तक मूल 14 व मेरे द्वारा संपादित 15, कुल 29 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है । जीवन का संघर्ष जारी है। देखना ये है कि ऊपर वाला कब तक मेरी परीक्षा लेता है।