इनकी नजर में डॉ० दिनेश पाठक 'शशि
निष्ठा और समर्पण के मणिकांचन संयोग के दर्शन मैंने डा0 दिनेश पाठक 'शशि के व्यäतिव में निरन्तर किये हैं। समर्पण की पराकाष्ठा वह भी निष्काम। साहित्य के प्रति समर्पण, समाज के प्रति समर्पण, संस्कारों के प्रति समर्पण, सेवा के प्रति समर्पण, परिवार के प्रति समर्पण, मित्रों के प्रति समर्पण और भी बहुत कुछ मगर सब कुछ निर्लिप्त भाव से। अनुकरणीय जीवन मूल्यों का प्रवाह सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष। सम्पर्क में आने वाला छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा आदमी भी इन सदगुणों का साक्षी हुए बिना नहीं जा सकता। वरिष्ठ होने के नाते अब तक जो साहित्य से नहंी जुड़ पाये उन्हें जुड़ने की और जो जुड़ गये उन्हें लगातार सृजन की प्रेरणा देना आपकी दिनचर्या में शामिल है। न जाने कितने गुमनाम आप के सबल प्रयासों से प्रकाश में आये, कितनों ने लिखना सीखा और कितने सोये हुए जाग पड़े। ऐसे लोग भी हैं जिन्हें पाठक जी निजी व्यय पर विभिन्न संस्थाओं और संस्थानों तक लेकर गये, वहाँ उनकी पहचान बनार्इ और तरह-तरह के प्रकाशन-प्रसारणों में उनके भाग ले पाने का मार्ग प्रशस्त किया।
बिना थके चलते रहने का गुण कम ही लोगों में मिलता है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में रहकर दक्षता पूर्वक दायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने सेवाकाल में ही आपने शोध प्रबन्ध पूरा किया और जो विषय चुना वह भी अदभुत 'भारतीय रेल के साहित्यकारों का हिन्दी भाषा एवं साहित्य को प्रदेय। व्यäतिव की ही तरह डा0 दिनेश पाठक 'शशि का Ñäतिव भी बहुमुखी है। व्यäतिव की सरलता आपके सृजन में भी परिलक्षित होती है। आपका लेखन बनावटीपन से दूर है। बात चाहे बाल साहित्य की हो या बड़ों के लिए लिखी गयी रचनाओं की, अभिव्यä किी सहजता सर्वत्र एक जैसी है। देख कर आश्चर्य होता है कि आप किस तरह बड़ों और बच्चों के लिये एक साथ लिख पाते होंगे। बचपन की निश्छलता और प्रौढ़ावस्था की गम्भीरता का दुर्लभ समायोजन किसी बहुमुखी प्रतिभा में ही संभव है। हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विèााओं में आपका लेखन इस प्रतिभा का स्वयं साक्षी है।
जिन्हें न नाम की चिन्ता, न प्रसिद्धि की चाह। जैसा और जितना हो सका है, साहित्य प्रेमियों के लिये सुखद और प्रेरणाप्रद होगा ऐसी आशा है और विश्वास भी।
मदन मोहन शर्मा 'अरविन्द
डा0 के0 उमराव 'विवेक निधि
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किसी परिचय के मोहताज नहीं
डा0 पाठक, जो 'दिनेश भी हैं और 'शशि भी! परन्तु दिनेश अर्थात सूर्य के समान उग्र तो हरगिज़ ही नहीं अलबत्ता शशि के समान शीतल अवश्य हैं। मेरी उनसे पहली मुलाकात शुभ तारिका के कहानी लेखन शिविर में 1994 में ऋषिकेष में हुर्इ थी। शिविर में हमेशा ही बहुत से लेखक भाग लेने आते हैं, कुछ याद रह जाते हैं और कुछ विस्मृत हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे भी होेते हैं जिनकी परछाइ हद्य में गहरे उतर जाती है। इस बार भी ऐसा ही था। डा. पाठक की स्मृति कहीं गहरे तक रह गर्इ।
वास्तव में शुभ तारिका की प्रत्येक रचना को पढ़ना मेरी अनिवार्य वैचारिक आवश्यकता होती है और शुभ तारिका के माध्यम से मुझे जिस दिनेश पाठक 'शशि का परिचय मिला वह एक श्रेष्ठ लघुकथाकार और श्रेष्ठ समीक्षक ही मात्र थे। उनके द्वारा रचित बाल साहित्य का परिचय तो मुझे उस समय नहीं मिला परन्तु धीरे-धीरे उनके व्यकितत्व के बहुत से पक्ष मेरे सामने खुलते चले गये।
पहली बार कहानी लेखन महाविधालय अम्बाला छावनी के लेखन शिविर में इस दुबले-पतले व्यकित को मैंने सपत्नीक, सैनी अशेश, डा. महाराज Ñष्ण जैन एवंं उर्मि Ñष्ण जैसे जि़ंदादिल लेखकों के साथ खिलखिलाते देखा था, उसे फिर मैंने जी-जान से अपनी रुग्ण पत्नी की सेवा में समर्पित भाव से संंलग्न देखा। एक दक्ष घरेलू स्त्री की भानित गृह कार्य निपटाते भी देखा, अतिथि सत्कार करते देखा। फिर घंटों कम्प्यूटर पर काम करके यत्र-तत्र बिखरे साहित्यकारों की रचनाओं को एकत्र कर संकलन प्रकाशित कराते भी देखा। स्वयं के साहित्य सृजन के लिए डा. पाठक को कब समय मिलता होगा यह मेरी साधारण बुद्धि से परे की बात है, डा. पाठक की सरकारी नौकरी और इस व्यस्तता से तो समझौता किसी भी सिथति में किया ही नहीं जा सकता।
डा. पाठक की लेखकीय उपलबिधयाँ गिनाना मेरा लक्ष्य नहीं क्योंकि इनकी रचनाओं के प्रशंसक तो भारत ही नहीं भारत से बाहर भी फैले हुए हैं। मुझे तो इनकी कार्य क्षमता पर आश्चर्य होता है।
जब मैं बाल साहित्य की ओर उन्मुख हुर्इ तो मैंने पाया कि, बाल साहित्य सृजन करना बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए बालकों का सा सरल मन होना भी परम आवश्यक है। इसके साथ-साथ बाल मनोविज्ञान को समझना भी उतना ही जरूरी है और वह भी बालक के धरातल पर उतर कर और उसी धरातल पर यह भी सोचना पड़ता है कि बच्चे क्या चाहते हैं और कैसी रचनाओं से उनका हित हो सकता है, अथवा वर्तमान समय में क्या उपयोगी होगा? डा. पाठक ने इन सब बिन्दुओं पर अपनी पकड़ ढीली नहीं पड़ने दी। बाल साहित्य की ढेरों Ñतियाँ पटल पर लाकर, फिर प्रौढ़ साहित्य का भी पूर्ण दक्षता से सृजन, समीक्षा जैसा रुक्ष कर्म और एक चिकित्सक जैसा निर्मम कार्य संकलन आदि का संपादन करना फिर व्यंग्य रचना। इतना सब कुछ एक ही व्यकित कैसे कर सकता है? यह पाठक जी को देखकर समझा जा सकता है। साहित्य की सभी विधाओं में लेखनी चालाने के बाद भी इन्हें संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने अपने पिता के नाम से बाल साहित्य सम्मान की आधारशिला रख दी। 'पं. हर प्रसाद पाठक-स्मृति बाल-साहित्य पुरस्कार समिति। अपनी पत्नी श्रीमती 'शशि पाठक की दीर्ध कालीन रुग्णता में पाठक जी यदि व्यथित हैं तो इस बात से हैं कि शशि का लेखन छूट गया। इतना अच्छा लिखती थी, अब पंगु हो कर रह गर्इ है।
क्या कहेंगे ऐसे व्यकित को जो पत्नी को रुग्णता से होने वाले समस्त कष्टों को भूलकर बस यह सोचता है कि शशि का लेखन छूट गया। ऐसा व्यकित क्या किसी परिचय का मुहताज हो सकता है।
श्रीमती आशा शैली
श्रीमती आशा शैली
संपादक- शैलसूत्र त्रैमा0
वार्ड नं-2, सितार गंज, जिला-ऊधमसिंह नगर (उत्तरांचल)
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सरल-विरल एवं संवेदनशील इन्सान
मैं डा. दिनेश पाठक 'शशि से उनकी रचनाकर्म से अनेक वषो± से परिचित था परन्तु वह कितने विरले इन्सान हैं यह मैंने लगभग 7 वर्ष पूर्व एक रात को अनुभव किया। हुआ यूँ कि मेरे बड़े पुत्र मयंक जो आजकल अमेरिका में साफ्टवेयर इन्जीनियर है अपनी पहली नौकरी हेतु हैदराबाद जा रहे थे। उन्हें जो मित्र देहली रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आया था उससे बातचीत में मग्न हो गये और गाड़ी छूट गयी। सारा सामान जिसमें नगदी से भी महत्वपूर्ण बेटे के सभी शैक्षणिक प्रमाण पत्र एवं पासपोर्ट आदि थे ट्रेन में ही रह गये। बेटे ने मुझे फोन किया तो मैंने मन ही मन फरीदाबाद से आगरा तक के जानकारों की लिस्ट टटोलनी आरम्भ की। भार्इ दिनेश पाठक का नाम उभरा पर तब तक केवल उनकी रचनाएं पढ़ी थीं पत्र व्यवहार फोन वार्ता तो थी नहीं। उनका फोन अम्बाला, आगरा, पटियाला कर्इ जगह फोन करने पर सुश्री उर्मिÑष्ण अम्बाला से मिला। उन्हें फोन किया। अपनी समस्या बतलार्इ तो उन्होंने तुरन्त सहायता की हामी भर दी। उन्हें सीट व बोगी नम्बर बतलाया। उन्हाेंने गाड़ी से सामान उतरवाया मथुरा स्टेशन से इन्क्वारी पर रखवाया। तब मोबाइल की सुविधा न मेरे पास थी न उनके पास अत: 15-20 बार मैंने फोन मिलाया इतनी ही बार उन्होंने फोन मिलाया होगा। पुत्र जब वहाँ पहुँचा तो दोनों एक दूसरे से अनजान थे। पुत्र ने सामान पहचाना (मुझसे फोन पर बातचीत के बाद) तो दोनों का मिलना हुआ। रात भर बेटा उनके पास रहा अगले दिन हैदराबाद। गया वहाँ जाकर बेटे ने बतलाया कि डा. पाठक की पत्नी उन दिनों बहुत बीमार थीं और घर पर अकेली थीं। डा. साहिब जब तक मयंक से स्टेशन पर नहीं मिले तब तक स्टेशन व अपने घर के बीच दौड़ लगाते रहे। कभी पत्नी को संभालते कभी मेरे बेटे मयंक को ढ़ूंढ़ते कि स्टेशन पर आ गया या नहीं। अब मैं व मेरी पत्नी आज तक इनके कितने Ñतज्ञ हैं शब्दों में समेटना असंभव है। उसके बाद तो मैं कभी अकेला तथा कभी पत्नी सहित मथुरा उनके घर पचासों बार हो आया हूँ। हमेशा देानों ही आत्मीयता से मिलते हैं। कभी हम पर उस का अहसान तो दूर जिक्र तक नहंी करते। मैं इसे भी अपना सौभाग्य एवं र्इश्वर का आशीर्वाद मानता हूँ कि शशि भाभी जो अपनी आवाज खो बैठी थी मेरे अल्प चिकित्सा ज्ञान एवं प्रभु आशीर्वाद से अब पहले की अपेक्षा स्वस्थ चल रही हैं। संवेदना वह अनूभूति है जब पर पीड़ा अपना दर्द बन जाती है और अपने दर्द को कोर्इ बहुत देर झेल नहीं सकता उसका उपचार करता ही है मैं âदय से कहता हूँ कि डा. दिनेश पाठक शशि संवेदनशीलता की जीती जागती तस्वीर हैं किसी शायर ने शायद इन्हीं के लिए यह शेर लिखा है
रूके तो चाँद, चले तो हवाओं जैसा है
ये शख्स तो धूप में भी छावों जैसा है।
मैं हद्य की गहरार्इयों से इनके स्वस्थ सुखी प्रसन्न एवं दीर्घायु की कामना करता हूँ।
डा0 श्याम सखा श्याम
संपादक-मासिकागद 12,
विकास नगर, रोहतक
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जैसे भीतर वैसे बाहर
अपनी मौलिक प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं पर अपनी सशक्त उपसिथति दर्ज करने वाले डा. दिनेश पाठक 'शशि का व्यकितत्व भी चुम्बकीय है। प्रथम भेंट में ही वे अपरिचय की बर्फ को अपनी आत्मीयता की ऊष्मा से पिघला देते हैं तब लगता है हम एक दूसरे से बरसों से परिचित हैं। उनके चेहरे की सहज मुस्कान, मीठा बोलने का अंदाज और व्यवहार में जो अत्यधिक शालीनता है उसे देखकर अचरज ही होता है।
मैं कुछ माह पूर्व ही भार्इ दिनेश पाठक जी से मिला। उन्होंने मुझे मेरी एक पुस्तक पर पुरस्कार प्राप्त करने मुझे बुलाया। लगातार फोन पर पूछते रहे कि महेश भार्इ आप किस ट्रेन से और कब पहुँच रहे हैं। तय हुआ कि वे स्टेशन पर मुझे लेने स्वयं या अन्य कोर्इ पहुँचेगा। हुआ यह कि मेरी ट्रेन रात्रि तीन बजे मथुरा पहुँचनी थी। मेरे सह यात्री ने बताया कि सारंग बिहार तो स्टेशन से बहुत दूर है। अत: मैंने भार्इ दिनेश जी को कष्ट देना उचित नहीं समझा। मैं मथुरा स्टेशन के पास ही एक होटल मेंं ठहर गया। सुबह जब उनसे भेंट हुर्इ तो उन्होंने बताया कि वे रात को दो बजे से ही मेरे फोन की प्रतीक्षा करते रहे थे। उन्होंने अपने बेटे को मुझे लाने के लिए पाबन्द किया था।
मथुरा में उन्होंने मेरा व अन्य साहित्यकारों का जो घर से आत्मीय स्वागत किया तथा कार्यक्रम स्थल को जिस प्रकार सजाया था वह देखकर मेरा मन खुश हो गया। सम्मानपुरस्कार आयोजन भार्इ दिनेश जी स्वयं के बलबूते पर ही करते हैं। शासन अथवा अन्य कहीं से कोर्इ अनुदान नहीं लेते। पूज्य पिताजी स्व0 पं0 हरप्रसाद पाठक की स्मृति में वे प्रतिवर्ष जो आयोजन करते हैं वह स्तुत्य है। एक संस्कारवान सुयोग्य बेटे का यही तो कत्र्तव्य है जिसका वे निर्वाह कर रहे हैं।
डा0 पाठक विषम परिसिथतियों में भी पूरे हौंसले से जीने वाले व्यकित हैं। रेलवे में जिम्मेदार पद की व्यस्तताएँ तथा भाभी जी की अस्वस्थता के बीच वे अपने कत्र्तव्य तथा साहित्य लेखन मेंं जिस तरह सक्रिय हैं वह वाकर्इ काबिले तारीफ है। भाभी जी भी साहित्यकार हैं। दोनों पति-पत्नी जिस प्रकार साहित्य सृजन में समय दे रहे हैं वह चमत्Ñत करता है।
डा0 पाठक की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें पढ़ कर हमें उनकी विलक्षण प्रतिभा और उनकी साहित्य साधना का परिचय होता है। बाल साहित्य के प्रति उनकी गहरी रूचि है उनकी पुस्तकें बच्चों के लिए पठनीय हैं। मुझे लगता है कि इसीलिए शायद डा0 पाठक मेंं बच्चों जैसी सहजता, सरलता और निष्कपटता है। वह अपने बारे में कुछ नहीं कहते हैंं । उनके साथ संवाद में कहीं कोर्इ आडम्बर या दिखावाटीपन नजर नहींं आता वास्तव में वह जैसे भीतर हैं वेैसे ही बाहर निश्छल और गजब की शालीनता के धनी व्यकित हैं
महेश सक्सेना
अध्यक्ष-बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध
के र्इ.डब्ल्यू.एस.-9, तात्या टोपे नगर, भोपाल-3
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सतत संघर्षो के मध्य प्रगति के नये सोपान तय करते डा. दिनेश पाठक 'शशि
एक कहावत हमारे समाज में बहुत लोकप्रिय है, ''सोना निरंतर तप कर ही कुंदन बनता है। या हजारों प्रहार सहजता से सहकर लोहे का एक साधारण टुकड़ा फौलाद बन जाता है। यह दोनों उäयिँ मेरे अनुरागी मित्र दिनेश पाठक 'शशि पर अक्षरश:सच साबित होती हैं।
1981-82 से लेकर अब तक लगभग 26 वर्ष से हम परिचय, मित्रता व प्रगाढ़ता की डेार मेें बंधे हैं। मेरी प्रथम कहानी संभवत: 1982-83 में पाठक जी ने आकाशवाणी रोहतक भेजकर मुझे 'युववाणी के माध्यम से आकाशवाणी से जोड़ा था। उनकी पहली Ñति 'अनुत्तरित जब मुझे डाक से कटनी में मिली व मैंने अपनी प्रतिक्रिया भेजी तब उन्होंने कहा था जैन साहब आपका लेखन मुझसे अधिक है। Ñपया इसे निरंतर प्रकाशनार्थ भेजते रहें। इसी प्रेरणा के कारण मेरा प्रथम कहानी संग्रह 'प्रतीक्षा हिन्दी के पाठकों से मेरा प्रगाढ़ परिचय का प्रथम सोपान बना, उसके पश्चात पथरीला यथार्थ (कहानी संग्रह) व संजोग (उपन्यास) के प्रकाशन में भी पाठक जी प्रेरक बने रहे। इसका उल्लेख मैंने इन Ñतियों के अतरिक्त अपने कविता संग्रह भä प्रिसून की भूमिका में विस्तार से किया है।
पाठक जी ने जो सृजन किया वह विशिष्ट व उल्लेखनीय इसीलिये है कि लगभग विगत 10-12 वषो से विपरीत, त्रासद, विषम परिसिथतियों के बीच रहकर भी उन्होंने रेलवे की सेवा, परिवार का दायित्व, बच्चों की पढ़ार्इ, पी-एच. डी., Ñतियों का प्रकाशन (अपनी व दूसरों की व आदरणीय भाभी जी की) व लेखन का कार्य पूरी शिददत के साथ जारी रखा जो निशिचत रूप से अनुकरणीय है।
इनकी अद्र्धागिनी आदरणीय भाभी जी श्रीमती शशि पाठक लम्बे समय से अस्वस्थ हैं। बीमारी भी मसितष्क की जो उन्हें चेतनाशून्य कर देती है, कर्इ माह वे निरंतर बिस्तर पर रहती हैं
जिन परिसिथतियों से जूझकर अच्छे-अच्छे धराशायी हो सकते हैं, उन्हीं के मध्य संघर्ष कर हर बार उन्हें धराशायी कर पाठक जी विजयी हुये हैं। साहित्य जगत को उन्होंने कर्इ लोकप्रिय Ñतियाँ कहानी व उपन्यास के रूप में दी हैं तो बाल साहित्य का विपुल सृजन कर नयी पीढ़ी को सृजन हेतु प्रेरित किया है। पी-एच. डी. करके एक विशिष्ट उपलबिध तो पायी ही भारतीय रेल पर एक पुस्तक लिखकर जनमानस को रेलवे के बृहद संसार से परिचय का वातायन दिया है। साथ ही लघुकथा, कथा, व्यंग्य के संग्रहों का सम्पादन करके एक ही आवरण में कलम के कर्इ रचनाकारों को प्रस्तुत किया है। इनकी विशिष्ट उपलबिधयों में एक यह भी है कि अपने स्वजनों की Ñतियों के प्रकाशन में ये सदैव सहयोगी रहे हैं।
अरुण कुमार जैन
सी-12 एफ, रेलवे कालोनी,
चन्शेखरपुर, भुवनेश्वर (उड़ीसा)
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दिनेश पाठक शशि की जिजीविषा, उन्हें सैकड़ों लोगों से अलग करती है
जो व्यकित नौकरी के बाद के अपने बचे-खुचे समय में पारिवारिक जिम्मेदारियों से ताल मेल बैठाए हुए साहित्य व समाज की सेवा में पूरी गंभीरता से सतत संलग्न हो, उस पर इस तरह के विशेष अंक अवश्य ही निकलने चाहिए। इससे उनके व्यकितत्व व Ñतित्व के बारे में एक मुश्त जानकारी तो मिलती ही है नए लोगों को उनके जीवन से काफी कुछ सीखने का अवसर भी प्राप्त होता है।
मेरे लिए यह नितान्त खुशी के क्षण हैं कि जिस व्यकित से मैं लगभग बचपन से ही पारिवारिक रूप से जुड़ा रहा हूँ और जिनके व्यकितत्व व Ñतित्व से सदैव मेरा स्वयं का जीवन भी प्रभावित रहा है उनके बारे में सार्वजनिक मंच से मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है।
बात संभवत: 1976-77 की है जब झांसी में रहते हुए लोटपोट या शायद दीवाना पत्रिका के पत्र मित्र स्तंभ में फोटो-परिचय प्रकाशित होने के बाद खुर्जा में पढ़ार्इ कर रहे भार्इ पाठक जी से मेरी पत्र मित्रता हुर्इ थी। उस समय मेरे बड़े भार्इ श्री अरुण श्रीवास्तव 'मुन्नाजी ने कुछ बच्चोंकिशोरों की टोली बनाकर मृगपाल नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। पाठक जी उससे भी तन, मन और धन से जुड गए थे। लगभग 10 वषो± की पत्र-मित्रता के पश्चात कोसीकलां (मथुरा) में रेलवे की नौकरी के दौरान मुझे पाठक जी से मुलाकात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। उस दिन उनके व भाभी श्रीमती शशि जी की आत्मीयता ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं सदा के लिए उन्हीं का होकर रह गया।
रेलवे की उनकी व्यस्त नौकरी और मेरी कृषि मंत्रालय, दिल्ली की नौकरी व घर-बाहर की व्यस्तताओं के बावजूद हमारे पारिवारिक सम्बन्ध आज भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं।
शरीर से दुबले-पतले और पत्नी की बीमारी व लंबे इलाज के बीच फंसे पाठक जी को हमने कभी टूटते हुए नहीं देखा। बलिक तमाम झंझावतों के बीच उनकी साहितियक व सामाजिक गतिविधियों को भी मैंने कभी प्रभावित होते हुए नहीं पाया। कड़ी और अत्यंत जिम्मेदारी वाली सरकारी नौकरी और घर की जटिल समस्याओं के बीच सतत लेखन, अपनी व दूसरों की पुस्तकों का नियमित प्रकाशन, अनेक आयोजनों की व्यस्तता और मैत्री निभाने व मित्रों को पूरी तबज्जो देने की उनकी जिजीविषा उन्हें सैकड़ों लोगों से अलग खड़ा करती है। चाहे बाल साहित्य हो या प्रौढ़ लेखन उनकी कलम सभी के लिए खूब दौड़ती है। सभी को एक ही तरह से हांकने वाली सरकारी सेवा में बेशक ऐसे रत्नों को अलग से तबज्जो देने की परम्परा न रही हो पर उससे इतर देश, साहित्य व समाज के लिए वह किसी अनमोल हीरे से कम नहीं।
मेरे उक्त कथन को मात्र इसलिए हल्के में नहीं लिया जा सकता कि मैं उनसे तीन दशकों से पारिवारिक रूप से जुड़ा हुआ हूँ। भगवान न करे, परन्तु यदि कभी उनके व हमारे बीच कोर्इ संबंध नहीं भी रहे तो भी उनकी साहित्य सेवा, मैत्री भावना, त्याग व समर्पण के प्रति मेरे मन से उपयर्ुक्त शब्द ही निकलेंगे। अंत में विशेषांक की सफलता की कामना सहित।
श्री किशोर श्रीवास्तव
संपादक- हम सब साथ-साथ
916, फरीद बाबा की दरगाह, वेस्टपटेल नगर, दिल्ली-8
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जैसा सोचा बिल्कुल वैसा ही पाया
सन 1998 में डा. शीतांशु भारद्वाज जी के संपादन में प्रकाशित व्यंग्य संकलन से दिनेश पाठक 'शशि जी से मेरा पहला परिचय हुआ था क्योंकि इनमें हम दोनों की रचनाएं थीं।
बाद में शशि जी के संपादन में सन 2003 में निकले ''आधी हकीकत के बाद शशि जी से मेरे पत्र व स्वर संवाद की शुरूआत हुर्इ तो फिर प्रगाढ़ ही होती रही। बात ही बात में एक दिन उन्होंने मुझे सुझाया कि यदि मैं इच्छुक हूँ तो वे मेरी लघुकथाओं के प्रकाशन की राह आसान कर सकते हैं और मेरी 'हाँ करते ही उन्होंने बड़ी सहजता से यह कार्य कर दिखाया फलत: 'त्रिशंकु पाठकों के समक्ष आ पाया। मेरी कहानियों में उनकी रूचि के चलते ही ''तेग सिंह लड़ता रहा का प्रकाशन भी बिना किसी दबाब व तनाव के इतनी सहजता व आसानी से हो गया कि इनका प्रकाशन मेरे जीवन की सुमधुर घटनाओं में शामिल हो गया।
जो व्यकित किसी और के काम को इतने अपनेपन, सहजता और धैर्य से निभाता हो ऐसे दिनेश पाठक 'शशि जी से मेरा संवाद भी प्रगाढ़ होना लाजमी था। ऐसा शुभ चिंतक होना और दूसरे को मिलना आज के दौर में पूर्वजन्म के किसी सुसंस्कार का प्रतिफल ही हो सकता है। साहित्य कर्म, अपनी नौकरी की व्यस्तता और पत्नी की अस्वस्थता के चलते समय का जो अभाव उनके पास रहता है उसके बाबजूद वे इस क्षेत्र से जुडे़ लोगों के लिए समय निकाल ही लेते हैं।
दूरभाष पर जब भी उनसे सम्पर्क होता है व्यस्तता की थकान के बोझ तले दबे उनके नपे-तुले शब्द कानों में पड़ते हैं जिनमें अपनी तरह का असीम धैर्य होता है, सरलता होती है और होती है निरन्तर आगे बढ़ने की लयबद्धता। सारी बाधाओं को पार करने का संकल्प कि संघर्ष के बूते हमें अपने कर्म को करते हुए जीवन में संजोये सपनों को साकार करते जीवन को सार्थक बनाते जाना है। घर परिवार व नौकरी की जिम्मेदारियों के बीच दिनेश पाठक 'शशि जी ने अपने भीतर जिस तरह एक रचनाधर्मी को संजीदा बनाए रखा है वह मध्यमवर्गीय जीवन जी रहे किसी भी रचनाधर्मी के लिए अनुकरणीय हो सकती है।
वषो± दूरभाष पर बातचीत,पत्रों से संवाद के बाद उनसे मेरी पहली मुलाकात मार्च 08 में हुर्इ। कितने सरल, सहज, विनम्र, अनुशासित व सजग, किसी सधे रचनाधर्मी जैसे जो सबसे पहले बेहतर इंसान होते हैं।
महावीर रवांल्टा
- प्रा0 स्वास्थ्य केन्द्र धरपा (बुलन्दशहर) उ. प्र.
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मेरे भार्इ दिनेश पाठक 'शशि
दिनेश पाठक शशि से मेरा परिचय पुराना है। ये हमारी छोटी सी गोष्ठी के सक्रिय सदस्य रहे। देखने में दुबले पतले और साधारण लगने वाले दिनेश असाधारण व्यकितत्व के धनी हैं। मैंने उन्हें क्रमश: उन्नति के सोपानों पर चढ़ते देखा है। जब से उन्होंने अपने पिताश्री के नाम से हर प्रसाद पाठक बाल साहित्य पुरस्कार का आरंभ किया है तब से तो उनकी उत्सव प्रबंधन क्षमता धीरे-धीरे बढ़ती ही गर्इ है। उन्होंने बाल कविताऐं लिखी फिर बड़ों के लिये भी कविताऐं लिखी हाइकू और कहानियाँ तो वे लिखते ही थे। एक बार गोष्ठी में उनसे किसी ने अपनी कविता सुनाने को कहा- मैंने कहा ये बच्चोंं के लिए लिखते हैं परन्तु जब इन्होंने एक अच्छी सी कविता सुनार्इ तो मैं दंग रह गर्इ। बहुत सुबह से शाम तक का समय आफिस में काम करते बीत जाता है तब यह साहित्य सृजन का समय कहाँ मिल पाता होगा लेकिन कहते हैं कि जहाँ चाह वहाँ राह है। उनकी पत्नी बीमार रहती हैं। अब तो वे इन्हें कोर्इ सहारा भी नहीं दे सकती परन्तु फिर भी साहित्य सृजन का कार्य सतत चलता रहता है। पत्राचार में वे बड़े चुस्त हैं किसको क्या भेजना है क्या मंगाना है इसका पूरा प्रबंध किये रहते हैं। उस पर भी राष्ट्रबंधु से संपादन कार्य का भार लेकर 'बाल साहित्य समीक्षा के कर्इ अंकों का सम्पादन किया।
उनकी बाल कहानी, लघुकथा, लेख एवं समीक्षाओं का प्रकाशन होता ही रहता है। एक बार नवनीत जैसी स्तरीय साहित्य पत्रिका में उन्होंने मेरी लोरी की पुस्तक 'आजा री निंदिया की समीक्षा लिखी थी। उसके प्रकाशित होने पर ही मुझे पता चला। आकाशवाणी मथुरा से तो वे कहानी, कविता, नाटक तथा झलकियाँ प्रसारित करते ही हैं, यहाँ दिल्ली (ब्रज माधुरी) में भी ब्रज भाषा सम्बन्धी कार्यक्रमों में भाग लेने आते हैं। कहानीकार तो वे हैं ही 'किêी नाम से एक बाल उपन्यास भी लिखा जिसकी भूमिका उन्होंने मुझसे ही लिखवायी।
वे मेरे प्रिय भार्इ हैं और मैं उनकी दीदी। मथुरा में तो वे सहयोगी थे ही यहाँ से भी मैं उनसे सहायता लेती रहती हूँ। भगवान से प्रार्थना है कि उनकी पत्नी शीघ्र स्वस्थ हो जायें जिससे वे साहित्य को पूरा समय दे सकें तथा æुत गति से इस दिशा में उन्नति कर सकें। व
डा0 सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
सी-56 सेक्टर-40, नोएडा-201303
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शब्द साधक: डा. दिनेश पाठक
डा. दिनेश पाठक 'शशि जी से पत्र व्यवहार द्वारा कर्इ बार संवाद हुये हैं एवं लेखक-सपांदक के रूप में भी गहरा रिश्ता रहा है। इनके द्वारा संपादित कर्इ लघुकथा-संग्रहों में हमारी लघुकथायें प्रकाशित हुयी हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इन्होंने कभी भी आर्थिक सहयोग नहीं लिया, हमेशा नि:शुल्क-संग्रह प्रकाशित किये एवं प्रकाशन भी अति स्तरीय रहा। साथ ही प्रकाशनोपरान्त लेखकीय प्रतियाँ भी अविलम्ब बड़े सम्मान एवं आत्मीयता के साथ भेजीं।
डा. दिनेश साहिब बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी तो हैं ही कर्इ विधाओं में लेखन के क्षेत्र में निपुण एवं दक्ष हैं। कार्य के प्रति प्रतिबद्धता का विशिष्ट गुण है इनमें। विद्वत्ता, विनम्रता एवं आत्मीयता का अप्रतिम संगम भी इनके व्यकितत्व में दृष्टव्य है। मैत्री भाव विशेष उल्लेखनीय है। इनके व्यवहार में सादगी का आकर्षण हमने महसूस किया है। परस्पर सदभाव रखना समय पर पत्रोत्तर देना भी बड़ी बात है। सारांशत: डा0 दिनेश अच्ंछे इन्सान होने के साथ-साथ साहित्य-साधक एवं हिन्दी के प्रति पूर्णत: समर्पित हैं।
सुश्री कृष्णा कुमारी
सुश्री कृष्णा कुमारी
सी-368, तलवण्डी, कोटा (राज.)
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कर्मठ साहित्यकार डा. दिनेश जी
मेरा परिचय डा. दिनेश जी से मथुरा आकाशवाणी के कार्यकाल के दौरान हुआ। आप हिन्दी और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कथाकारों में रहे हैं और अनवरत सृजनशील हैं। बाल साहित्य के लिए तो आप शुरू से ही प्रयत्नशील रहे हैं। यही कारण है कि आपने अपने पूज्य पिताश्री की स्मृति में 'पं. हरप्रसाद पाठक स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार स्थापित किया है। यह बाल साहित्य के संरक्षण और संवद्र्धन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। आज जबकि विशेष रूप से हिन्दी में बाल साहित्य को दोयम दर्जे पर रखने का दुष्चक्र चल रहा है सरकारी स्तर पर और गैर सरकारी स्तर पर भी जबकि बाल साहित्य लिखना, प्रौढ या सामान्य साहित्य से अधिक श्रम साध्य ओर दुष्कर है। आज नर्इ पीढ़ी को साहित्य के प्रति आकर्षित करने के लिए बाल साहित्य को बढ़ावा देना अति आवश्यक है।
डा0 दिनेश पाठक 'शशि मेरे पारिवारिक मित्र हैं मेरे मूल निवास स्थान के निकटस्थ क्षेत्र से हैं। ब्रज भाषा का लालित्य और मिठास इनके साहित्य में तो परिलक्षित होती ही है इनके स्वभाव में भी है। अपने मित्रों शुभचिन्तकों और स्नेहियों के लिए हरवक्त जी जान से तैयार रहते हैं। अपने जरूरी काम छोड़कर भी जितना सहयोग संभव है उतना कर देते हैं। इसीलिए इनके साहितियक एवं व्यवसायगत मित्रों की संख्या बहुत ही दूर-दूर क्षेत्रों तक है। अपने मित्रों को साहित्य से जोड़े रखना इनका प्रमुख ध्येय रहता है। लघुकथा संग्रह आया इनके संपादन में उसमें भी मेरी लघुकथा हठ करके रखी, फिर व्यंग्य संग्रह आया तो उसमेंं भी मेरे व्यंग्य समाविष्ट किए। बाल साहित्य की कुछ पांडुलिपियां मेरे पास थीं- 'अनोखी मछलियां और 'विचित्र जीव जन्तु ले गए और प्रयासों से प्रकाशित भी करा दिये। इतना परिश्रम, इतना समर्पण कितने रचनाकारों में रह गया है।
डा. हरी सिंह पाल
कार्यक्रम अधिकारी, आकाशवाणी,शिमला (हि.प्र.)
डा० दिनेश पाठक शशि के विषय में जो कुछ यहाँ लिखा गया है वह एकदम सही है, डा० पाठक बहुत सहज, सरल व्यक्तित्व के धनी है, दूसरों का सहयोग करके उन्हें वास्तविक सुख मिलता है।
जवाब देंहटाएंसब कुछ एक बार फिर से पढ़ा, आनंद, अनुराग, स्नेह की गाढ़ी अनुभूति हुयी, पाठक जी जैसे कर्मठ व्यक्ति धरा पर सदैव रहें i
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